।। श्रीहरिः ।।

संकल्प-त्यागसे कल्याण-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
दूसरोंके लिये रहें, अपने लिये नहीं—इसमें परतन्त्रता दीखती है, पर वास्तवमें इसमें स्वतन्त्रता है । माँ-बापके लिये आदर्श बेटा बन जाओ, पत्नीके लिये आदर्श पति बन जाओ, पुत्रके लिये आदर्श पिता बन जाओ, भाईके लिये आदर्श भाई बन जाओ, बहनके लिये आदर्श भाई बन जाओ, समाजके लिये आदर्श सदस्य बन जाओ । परन्तु माँ-बाप हमारे लिये हैं, स्त्री हमारे लिये है, पुत्र हमारे लिये है, जनता हमारे लिये है—ऐसा होगा, तो यह संकल्प हो जायगा और इसमें आप फँस जाओगे । संकल्पसे कामना पैदा होती है—‘संकल्पप्रभवान्कामान्’ (गीता ६/२४) । कामनासे क्रोध, क्रोधसे सम्मोह, सम्मोहसे स्मृतिनाश, स्मृतिनाशसे बुद्धिका नाश, बुद्धिके नाशसे मनुष्यका पतन हो जाता है (गीता २/६२-६३) ।

श्रोता—महाराज ! इतनी कृपा करो कि यह बात काममें आ जाय ।

स्वामीजी—मेरी दृष्टीसे तुम ध्यान नहीं देते हो । ध्यान दो तो आँख खुल जाय । यह संकल्प-त्यागकी बात मेरेको इतनी विचित्र दीखती है कि जैसे नींदमें पड़े हुए आदमीकी नींद खुल जाय, बेहोश आदमीको होश आ जाय ! इस बातसे इतना फरक पडता है ! जैसे दूध पीते हुए बालकके मुखसे स्तन हटा दे तो वह छटपटाता है, सह नहीं सकता, पर बल नहीं होनेसे बेचारा करे क्या ! ऐसे ही इन बातोंकी आपमें रूचि लगेगी तो न हरेक कथामें ठहर सकोगे, न हरेक परिस्थितिमें ठहर सकोगे । जैसे रुपयोंके लिये आदमी चाहे जो कर लेता है; माँको छोड़ देता है, स्त्रीको छोड़ देता है, बच्चोंको छोड़ देता है और जगह चला जाता है कि रूपया मिलेगा । परन्तु यह चीज रुपयोंसे भी बढ़िया है । रुपये तो थोड़े दिनके हैं । या तो रुपये चले जायँगे, या आप रुपये छोडकर मर जाओगे, परन्तु यह जन्म-जन्मान्तरोंतक साथ रहनेवाली चीज है । ऐसी बढ़िया चीज है कि आदमी निहाल हो जाय, जीवन सफल हो जाय, विलक्षण आनन्द हो जाय, स्वाधीन हो जाय, मुक्त हो जाय ! अपना संकल्प न रखे तो योगारूढ़ हो जाय । योगारूढ़ होनेपर एक शान्ति मिलेगी, एक निर्विकल्पता मिलेगी । उसका भी रस नहीं भोगें तो मुक्ति हो जायगी । अगर रस भोगेंगे तो अटक जायँगे‘सुखसंगेन बध्नाति’ (गीता १४/६) ।

मेरे विचार यह होता है कि आप जो पूछें, वही कहूँ । इसका मतलब है कि आपका संकल्प पूरा हो । हमारी बात पूरी हो—ऐसा नहीं । आप कह देते हो कि जो तुम्हारे मनमें आये, वह कहो । तो फिर यह आपके मनकी हो गयी । इसमें बड़ा ही आनन्द है । हमें अपने लिये कुछ करना ही नहीं, अपने लिये कुछ चाहिये ही नहीं, अपना कुछ है ही नहीं । कैसी मौजकी बात है ! ‘सदा दीवाली सन्तकी, आठों पहर आनन्द ।’ कोर आनन्द ही आनद है !

ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये—यह संकल्प है; परन्तु ऐसा करना चाहिये और ऐसा नहीं करना चाहिये—यह संकल्प नहीं है । करनेमें तो बिलकुल विचारपूर्वक करना है, समझ-समझकर करना है—‘सुचिन्त्य चोक्तं सुविचार्य यत्कृतं सुदीर्घकालेपि न याति विक्रियाम् ।’ करनेमें सावधान रहना है और होनेमें प्रसन्न रहना है । ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ (गीता २/४७)—कर्म करनेमें ही हमारा अधिकार है, फलमें नहीं । करनेका विचार संकल्प नहीं होता, फलका विचार संकल्प होता है । करनेका विचार तो कर्तव्य होता है । हमारे अनुकूल काम हो; जो हम न चाहें, वह नहीं हो—यह संकल्प है । जो आपके अनुकूल हो जायगा, उसकी पराधीनता आपको भोगनी ही पड़ेगी । मैं शब्द ज्यादा कहता हूँ, पर सच्ची बात है कि भगवान् को भी पराधीन होना पडता है, आप क्या चीज हो ! ‘अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज ।’ (श्रीमद्भागवत ९/४/२३)—मैं भक्तोंके पराधीन हूँ,स्वतन्त्र नहीं । भक्त भगवान् के संकल्पके अनुसार करता है, इसलिये भगवान् को उसका दास होना पडता है—‘मैं तो हूँ भगतनको दास, भगत मेरे मुकुटमणि ।’ आपके मनके अनुसार चलनेवालेका गुलाम आपको बनना पड़ेगा, पड़ेगा, पड़ेगा ! कोई बचा सकता नहीं ! आपका अपना संकल्प ही नहीं होगा तो आप कभी पराधीन, गुलाम हो ही नहीं सकते ।


(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे