Jul
31
।। श्रीहरिः ।।
31July2011
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30
।। श्रीहरिः ।।
30July2011
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29
।। श्रीहरिः ।।
29July2011
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26July2011 -
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17July2011
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Jul
16
।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि—

श्रावण कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं. २०६८, शनिवार

व्यवहारमें परमार्थ

(गत ब्लॉगसे आगेका)

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥

(गीता ८/६)

यह कानून है कि जिस-जिस भावका स्मरण करता हुआ मनुष्य जाता है, वह आगे उसी भावसे भावित होता हुआ उसी जन्मको प्राप्त होता है । अन्तकालके चिन्तनके अनुसार गति हो जाती है । ‘अन्त मति सो गति ।’ यह हुआ भगवान्‌का कानून । भगवान्‌ कहते हैं कि अन्तकालमें मुझे याद करेगा तो मुझे प्राप्त हो जायगा । परमात्माकी प्राप्तिके लिये अन्तकालमें परमात्माका चिन्तन करे, परमात्माकी प्राप्ति हो जाय । इसमें दया यह भरी हुई है कि जितने दामोंमें कुत्तेकी योनी मिले उतने ही दामोंमें परमात्माकी प्राप्ति हो जाय । क्या खर्च हुआ बताओ ? कुत्तेको याद करते हुए मरोगे तो कुत्ता बन जाओगे और परमात्माको याद करते हुए मरोगे तो परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी तो इसमें अपने लिये भगवान्‌ने कोई रियायत नहीं की–यह तो न्याय है । कानून है उसका कोई भी पालन कर लो और इस कानूनमें दया भी भर दी । जिस चिन्तनसे चौरासी लाख योनी मिलती है, उसी चिन्तनसे भगवत्प्राप्ति हो जाय, सदाके लिये जन्म-मरण मिट जाय । यह कानूनमें न्याय भी है, दया भी है । इसी तरह व्यवहार ठीक करनेसे परमार्थ भी सुधरता है । व्यवहारका काम ठीक करनेसे परमार्थ नहीं बिगड़ता । झूठ, कपट, बेईमानी, धोखेबाजी करते हो तो उससे परमार्थ बिगड़ता है । लोगोंको इससे लाभ दिखता है, पर लाभ नहीं है ।

किसीके साथ कपट करोगे, द्वेष करोगे, चालाकी करोगे, ठगी करोगे तो जैसे कि कहा है–‘हाँडी काठकी चढ़े न दूजी बार ।’ काठकी हाँडीको एक बार चूल्हेपर चढ़ा दो, तो दुबारा चढ़ेगी क्या ? ऐसे ही एक बार भले ही ठगी कर लो पर उसके साथ खटपट हो जायगी । व्यवहार भी ठीक नहीं होगा । अतः अपने स्वार्थका त्याग और दूसरोंके हितकी भावनासे व्यवहार ठीक होगा और व्यवहार ठीक होगा तो परमार्थ भी ठीक होगा । स्वार्थ और अहंकारका त्याग करनेसे काम ठीक होता है । यह बहुत ही लाभकी बात है ।

भगवद्गीता व्यवहारमें परमार्थ सिखाती है । गीता पढ़ो, गीताका अध्ययन करो, उसपर विचार करो और उसके अनुसार अपना जीवन बनाओ । देखो कितनी मौज होती है ! कितना आनन्द आता है स्वाभाविक ही ! गीता बतलाती है कि व्यवहार ठीक तरहसे करो तो परमार्थ तो स्वतःसिद्ध है । बिगड़ा तो व्यवहार ही है और कुछ बिगड़ा ही नहीं है । न जीवात्मा बिगड़ा, न परमात्मा बिगड़ा, न कल्याण बिगड़ा है । बिगड़ा है केवल व्यवहार । व्यवहार शुद्ध कर लो, सब काम सिद्ध हो जायगा ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

—‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे

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Jul
15
।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि—

आषाढ़ पूर्णिमा, वि.सं. २०६८, शुक्रवार

गुरुपूर्णिमा, व्यास-पूजा

व्यवहारमें परमार्थ

(गत ब्लॉगसे आगेका)

परिवार जितना आपके कहनेमें चलेगा, उतना ही आपके अधिक बन्धन होगा । जितना ही वह आपका कहना नहीं करेगा, उतना ही छुटकारा होगा, उतनी ही आपमें स्वतन्त्रता होगी, उतना ही आपको लाभ है । जितना वे कहना अधिक करेंगे, उतना ही आपको बन्धन होगा । मनुष्यको यह अच्छा लगता है कि दूसरे लोग मेरे अनुकूल चलें, मेरा कहना मानें । परन्तु यह बन्धन-कारक है । जहर चाहे मीठा ही हो, पर मारनेवाला होता है । इसी प्रकार अनुकूलता आपको भले ही अच्छी लगे, पर वह बाँधनेवाली है । वे उच्छृंखलता करें तो भी आप अच्छे-से-अच्छा बर्ताव करो । वे चाहे उम्रभर बुरा ही करें तो भी आप उकताओ मत । आपके लिये बहुत ही बढ़िया मौका है । उनके बुरा करनेपर भी आप अपना बर्ताव अच्छे-से-अच्छा करो ।

एक सज्जन थे । उन्होंने कहा कि आप कुछ भी करो, मेरेको गुस्सा नहीं आता । आप परीक्षा करके देख लो । दूसरेने कहा कि आपको गुस्सा नहीं आता, बहुत अच्छी बात है । आपको क्रोध दिलानेके लिये मैं अपना स्वाभाव क्यों बिगाडूँ ? तो सदैव यह भाव रहे कि हम अपना स्वाभाव अच्छा रखें ।

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।

(गीता १८/४५)

अपने कर्त्तव्यका ठीक पालन करो । उसका नतीजा अपने लिये भी ठीक ही होगा । परिवारके साथ इस तरह बर्ताव करोगे तो लोक और परलोक दोनों सुधरेंगे । यहाँ भी आपका भला होगा और वहाँ भी । गीतामें कहा है ‘नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः’ (४/३१) जो यज्ञ नहीं करता उसका यह लोक भी ठीक नहीं होता, फिर परलोक कैसे ठीक होगा ? यहाँ ‘यज्ञ’ का अर्थ कर्त्तव्य-पालन है । अपने कर्त्तव्यका पालन नहीं करता तो इस लोकमें भी सुख नहीं पाता और परलोकमें भी । जो अपना ही स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है, अपना ही आराम चाहता है, उसका संसारमें भी आदर नहीं होता और पारमार्थिक उन्नति भी नहीं होती । जो अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये काम करता है, वह संसारमें भी अच्छा माना जाता है । परमार्थ भी उसका शुद्ध हो जाता है, वह लोक और परलोक–दोनों जगह सुख पाता है ।

कुछ लोगोंमें यह धारणा है कि हम आध्यात्मिक उन्नति करेंगे तो व्यवहार ठीक नहीं होगा और संसारका व्यवहार ठीक करेंगे तो परमार्थ सिद्ध नहीं होगा । यह धारणा सही नहीं है । गीतामें इन दोनोंका समन्वय है, अच्छा बर्ताव करो तो अपना लोक-परलोक दोनों सुधर जायेंगे । व्यवहार भी अच्छा होगा और परमार्थ भी अच्छा होगा । व्यवहारमें परमार्थकी कला सीख लो । जैसे–एक दयालु जज होता है तो वह न्याय नहीं कर सकता और न्याय पूरा-का-पूरा ठीक करता है तो दया नहीं कर सकता । दया करे तो रियायत करने पड़े, तो न्याय नहीं कर सकता और न्याय ठीक-ठीक करे तो दया कैसे होगी ? परन्तु भगवान्‌की ऐसी बात है कि भगवान्‌ दयालु भी हैं और न्यायकारी भी हैं । इन दोनोंमें बाधा नहीं लगती, क्योंकि भगवान्‌ने कानून ही ऐसे बनाये हैं कि उस कानूनमें दया भरी हुई है । जैसे भगवान्‌ने कहा–‘अन्तकालमें मनुष्य जिसका स्मरण करता है, उसीके अनुसार गति होती है ।’

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे

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Jul
14
।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि—

आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं. २०६८, गुरुवार

व्यवहारमें परमार्थ

अपने स्वार्थ व अभिमानका त्याग करके ‘सबका हित कैसे हो’–इस भावनासे बर्ताव करें । परिवारमें रहनेकी यह विद्या है । प्रत्येक काम करनेका एक तरीका होता है, एक विद्या होती है, एक रीती होती है और उसमें एक चतुराई होती है, उसमें एक कारीगरी होती है । इसी प्रकार परिवारमें रहनेकी भी एक विद्या है । आप बेटा हो तो माँ-बापके सामने सपूत-से-सपूत बेटा बन जाओ । जिसके भाई हो तो उसके लिये आप श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ भाई बन जाओ । जिसके आप पति हो, उसके लिये आप श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ पति बन जाओ । आप पिता हो तो पुत्र-पुत्रीके लिये श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ पिता बन जाओ । जैसा जिसके साथ सम्बन्ध है, उससे आपका श्रेष्ठ सम्बन्ध होना चाहिये । उनके साथ उत्तम-से-उत्तम बर्ताव करोगे तो वे लोग भी आपसे अच्छा बर्ताव करेंगे, तब परिवार ठीक रहेगा । आप कह सकते हैं कि परिवारके सब लोग इस तरह सोचेंगे, तब ठीक होगा, एक आदमी क्या करेगा ? बात ठीक है; परन्तु आप अच्छा बर्ताव करना शुरू कर दो । उस अच्छे बर्तावके करनेसे परिवारका बर्ताव भी अच्छा होगा और परिवारमें बड़ी शान्ति होगी ।

आप अपनी तरफसे ठीक बर्ताव करते रहो । उसमें एक और शूरवीरता ले आओ । रामायणमें आया है–

उमा संत कइ इहइ बड़ाई ।

मंद करत जो करइ भलाई ॥ (५/४०/४)

परिवारवाले आपके साथ खराब बर्ताव करें, आपको दुःख पहुँचावें, आपका अपयश करें, तिरस्कार करें, अपमान करें तो भी आप उनका नुकसान मत करो, उनको दुःख मत दो । उनको सुख दो, आदर करो, प्रशंसा करो । उनको कैसे आराम पहुँचे–इस भावसे आप बर्ताव करोगे तो आपका परिवार आपके लिये दुःखदायी नहीं होगा । परिवारके सभी आपसमें ठीक बर्ताव करेंगे । इस जमानेमें इस बातकी बड़ी भारी आवश्यकता है ।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।

(गीता २/४७)

अपनी ओरसे आप परिवारवालोंके प्रति अपना कर्त्तव्य-पालन करो । दो चीजें हैं–एक होता है कर्त्तव्य और एक होता है अधिकार । मनुष्य अधिकार तो जमाता है, कर्तव्य नहीं करता–यह खास बीमारी है, जिसके कारण संसारमें और परिवारमें खटपट मचती है । वह अपना अधिकार रखना चाहता है और कर्त्तव्य-पालन करनेमें ढिलाई करता है, उपेक्षा करता है या कर्त्तव्य नहीं करता है । इसीसे गड़बड़ी होती है । इसलिये अधिकार तो जमाओ मत और कर्त्तव्यमें किंचिन्मात्र भी कमी लाओ मत । उनके अधिकारकी पूरी रक्षा करो । उनका जो हमारेपर हक लगता है उस हकको ठीक निभाओ । आप उसपर अधिकार मत जमाओ कि हमारा लड़का है, हमारा कहना क्यों नहीं मानता ? हमारी स्त्री कहना क्यों नहीं मानती ? भीतरमें यह अधिकार मत रखो । कहना हो तो कह दो–प्रेमसे, स्नेहसे, आदरसे, अपनेपनसे; पर भीतरमें आग्रह मत रखो कि स्त्री-पुत्र मेरे कहनेमें ही चलें ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे

|
Jul
13
।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि—

आषाढ़ शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं. २०६८, बुधवार

क्रोधपर विजय कैसे हो ?

(गत ब्लॉगसे आगेका)

परिवारमें रहना क्या है ? आपके कर्तव्यका आपपर दायित्व है । आपका कर्तव्य क्या है ? स्त्री मानें, न मानें; पुत्र मानें, न मानें; भाई मानें, न मानें; माँ-बाप मानें, न मानें; भौजाई और भतीजे मानें, न मानें; आप अपने कर्त्तव्यका ठीक तरह पालन करें । वे अपना कर्त्तव्य पालन करते हैं या नहीं करते, उधर आप देखो ही मत । क्योंकि जब आप उनके कर्त्तव्यको देखते हो कि ‘ये उदण्ड न हो जायँ ।’ ऐसे समयमें आप अपने कर्त्तव्यसे च्युत ही हैं, आप अपने कर्त्तव्यसे गिरते हो; क्योंकि आपको दूसरोंका अवगुण देखनेके लिये कर्त्तव्य कहाँ बताया है ? शास्त्रोंमें कहीं भी यह नहीं बताया है कि तुम दूसरोंका अवगुण देखा करो; प्रत्युत यह बताया है कि यह संसार गुण-दोषमय है–

सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक ।

गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक ॥

(मानस ७/४१)

दूसरोंमें गुण है, उनको तो भले ही देखो, पर अवगुण मत देखो । अवगुण देखोगे तो वे अवगुण आपमें आ जायेंगे और अवगुण देखकर उनको उद्दण्डतासे बचानेके लिये क्रोध करते हो तो आप क्रोधसे नहीं बच सकते । इसलिये आप अपना कर्त्तव्यका पालन करो । दूसरोंका न कर्त्तव्य देखना है और न अवगुण देखना है । हाँ, लड़का है तो उसको अच्छी शिक्षा देना आपका कर्त्तव्य है, पर वह वैसा ही करे–यह आपका कर्त्तव्य नहीं है । यह तो उसका कर्त्तव्य है । उसको कर्त्तव्य बताना–यह आपका कर्त्तव्य नहीं है । आपको तो सिर्फ इतना ही है कि भाई, ऐसा करना ठीक नहीं है । अगर वह कहे–‘नहीं-नहीं बाबूजी, ऐसे करेंगे’; तो कह दो–‘अच्छा ऐसे करो !’ –यह बहुत बढ़िया दवाई है । मैं नहीं कहने योग्य एक बात कहा रहा हूँ कि ‘इस दवाईका मैं भी सेवन कर रहा हूँ ।’ आपको जो दवाई बताई, यह बहुत बढ़िया दवाई है । आप कहो–‘ऐसा करो’ और अगर वह कहे नहीं, हम तो ऐसा करेंगे । अच्छा, ठीक है, ऐसा करो ।

रज्जब रोस न कीजिये कोई कहे क्यूँ ही ।

हँसकर उत्तर दीजिये हाँ बाबाजी यूँ ही ॥

अन्याय हो, पाप हो तो उसको अपने स्वीकार नहीं करेंगे । अपने तो शास्त्रके अनुसार बात कह दी और वे नहीं मानते तो शास्त्र क्या कहता है ? क्या उनके साथ लड़ाई करो ! या उनपर रोब जमाओ ! आपको तो केवल कहनेका अधिकार है–‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ (गीता २/४७) और वे ऐसा ही मान लें–यह फल है, आपका अधिकार नहीं है । ‘मा फलेषु कदाचन’ (गीता २/४७) । आपने अपनी बारी निकाल दी, बस ! कर्त्तव्य तो आपका कहना ही था, उनसे वैसा करा लेना आपका कर्त्तव्य थोडा ही है ! वैसा करे, यह उनका कर्त्तव्य है । अपने तो कर्त्तव्य समझा देना है । उसने कर्त्तव्य-पालन कर लिया तो आपके कल्याणमें कोई बाधा नहीं और वह नहीं करेगा तो उसका नुकसान है, आपके तो नुकसान है नहीं, क्योंकि आपने तो हितकी बात कह दी । –यह बहुत मूल्यवान बात है !

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

—‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे

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Jul
12
।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि—

आषाढ़ शुक्ल द्वादशी, वि.सं. २०६८, मंगलवार

क्रोधपर विजय कैसे हो ?

(गत ब्लॉगसे आगेका)

छोड़नेका उपाय क्या है ? जो लोग आपका कहना नहीं करते, वे तो आपके अभिमानको दूर करते हैं और जो आपका कहना करते हैं वे आपके अभिमानको पुष्ट करते हैं–यह बात आपको जँचती है कि नहीं ? जो कहना नहीं करते, वे आपका जितना उपकार करते हैं, जितना हित करते हैं; कहना करनेवाले उतना उपकार, हित नहीं करते । अगर आप अपना हित चाहते हो तो आपके अभिमानमें टक्कर लगे, उतना ही बढ़िया है । कहना न करनेमें आपके लाभ है, हानि नहीं है । अभिमान पुष्ट करनेके लिये वे बढ़िया हैं, जो कहना करते हैं; परन्तु आपका अभिमान दूर करनेके लिये वे बढ़िया है, जो कहना नहीं करते हैं । इसलिये आपको तो उनका उपकार मानना चाहिये कि वास्तवमें हमारा हित इस बातमें है ।

यद्यपि वे जानकर हित नहीं करते है कि भाई, तुम्हारा अभिमान दूर हो जाय, इसलिये हम आपका कहना नहीं करेंगे । फिर भी आपके तो फायदा ही हो रहा है, वे आपके अभिमानको दृढ़ नहीं कर रहे हैं अर्थात् आपका अभिमान दृढ़ नहीं हो रहा है । आप अपना हित चाहते हो कि अहित चाहते हो ? कल्याण चाहते हो कि पतन चाहते हो ? अगर आप कल्याण चाहते हो तो कल्याण आपका निरभिमान होनेसे है और निरभिमान आप तभी होंगे, जब आपका कहना कोई नहीं मानेगा । अगर कहना मानता है तो आपका कहना सब जगह डटा रहेगा और यही अभिमान है, यही आसुरी सम्पत्ति है–‘दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः’ (१६/४) । तो जो आपका कहना नहीं मानते, वे आपपर बड़ी भारी कृपा कर रहे हैं । आपकी आसुरी सम्पत्ति हटाकर आपमें दैवी सम्पत्ति ला रहे हैं ।

अब प्रश्न आया है कि कहना नहीं माननेसे तो बालक उद्दण्ड हो जायेंगे ? आपका कहना माननेसे आप अभिमानी हो जायँगे और आपका कहना नहीं मानते तो वे उद्दण्ड हो जायेंगे–इन दोनोंपर गहरा विचार करो । आप नहीं रहोगे तो मनमानी करके उद्दण्ड तो फिर भी हो जायेंगे, परन्तु आपका अभिमान दूर कैसे होगा ? उद्दण्ड तो आपके बिना भी हो जायेंगे, पर आपका अभिमान तो दूर नहीं होगा । इसलिये आपको अभिमान तो पहले दूर कर ही लेना चाहिये ।

दूसरी बात यह है कि आप उनपर रोब नहीं जमाओगे तो आपकी सौम्यावस्था और निरभिमान-अवस्थाका असर उनपर पड़ेगा, जिससे वे उद्दण्ड नहीं होंगे, ठीक हो जायेंगे । आप कह दो कि भाई, ऐसा काम नहीं करना चाहिये फिर भी वे वैसा ही करें तो आप शान्तिसे चुप-चाप रहो । कारण कि वे उद्दण्डता करेंगे तो उनको वैसा फल मिलेगा । फल मिलनेसे उनको चेत होगा, जिससे उनकी उद्दण्डता स्वतः मिटेगी । उनको चेत होकर जो उद्दण्डता मिटेगी, वह आपके कहनेसे नहीं मिटेगी; क्योंकि उनके मनमें तो अपनी बात भरी रहेगी और आपकी बात उपरसे कलई-जैसे रहेगी, वह कलई उतर जायगी तो इससे उद्दण्डता कैसे मिटेगी ? उसकी उद्दण्डता मिटानेका सही उपाय यही है कि आप अपने अभिमानको दूर करो ।

मनुष्यको परिवारमें रहना है तो परिवारमें रहना सीख लेना चाहिये । परिवारमें रहनेकी यह विद्या है कि उनका कहना करो, उनके मनके अनुसार चलो । अपना जो कर्तव्य है, उसका तो पालन करो और उनकी प्रसन्नता लो ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे

|
Jul
11
।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि—

आषाढ़ शुक्ल एकादशी, वि.सं. २०६८, सोमवार

हरिशयनी एकादशीव्रत

क्रोधपर विजय कैसे हो ?

जैसे आप हिसाब सिखते हो तो उस हिसाबका गुर सीख लेते हो तो वह हिसाब सुगमतासे हो जाता है । ऐसे ही हरेक प्रश्नका एक गुर होता हैं उसको आपलोग सीख लो तो प्रश्नका उत्तर स्वतः आ जायगा ।

प्रश्न आया है कि हम क्रोधपर विजय कैसे पावें ? तो क्रोध पैदा किससे होता है ? गीताने कहा—‘कामसे ही क्रोध पैदा होता है—‘कामात्क्रोधोऽभिजायते ।’ (२/६२) वह काम (कामना) क्या है ? मनुष्यने समझ रखा है कि ‘धन, सम्पत्ति, वैभव आदिकी कामना होती है’—ये भी सब कामना ही है, पर मूल—असली कामना क्या है ? ‘ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये’—यह जो भीतरकी भावना है, इसका नाम कामना है ।

आप पहले यह पकड़ लेते हो कि ‘ऐसा होना ही चाहिये’ और वह नहीं होगा तो क्रोध आ जायगा । ‘ऐसा नहीं होना चाहिये’ और कोई वैसा करेगा या उससे विपरीत करेगा तो क्रोध आ जायगा । ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये—यही क्रोधका खास कारण है ।

ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये—इस कामनामें कोई फायदा नहीं है; क्योंकि दुनियामात्र हमसे पूछकर करेगी क्या ? हमारे मनके अनुसार ही करेगी क्या ? आप अपनी स्त्री, पुत्र, अपने नौकर आदिसे चाहते हैं कि ये हमारा कहना करें तो क्या उनके मनमें नहीं हैं ? ऐसा करूँ और ऐसा न करूँ—ऐसा उनके मनमें नहीं है क्या ? अगर उनका मन इससे रहित है, तब तो आप कहें, वैसा वे कर देंगे, पर उनके मनमें भी तो ‘ऐसा करूँ और ऐसा न करूँ’ ऐसी दो बातें पड़ी हैं तो वे आपकी ही कैसे मान लें ? आपकी ही वे मान लें तो फिर आप भी उनकी मान लो । जब आप भी उनकी माननेके लिये तैयार नहीं है तो फिर अपनी बात मनवानेका आपको क्या अधिकार है ? इसलिये ‘ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये’—यह भाव मनमें आ जाय तो ‘ये ऐसा ही करें’, अपना यह आग्रह छोड़ दो । इस आग्रहमें अपना अभिमान अर्थात् मैं बड़ा हूँ, इनको मेरी बात माननी चाहिये—यह बड़प्पनका अभिमान ही खास कारण है और वैसा न करनेसे अभिमान ही क्रोधरूपसे हो जाता है ।

अगर आप शान्ति चाहते हो तो अभिमान मिटाओ; क्योंकि अभिमान सम्पूर्ण आसुरी संपत्तिका मूल है । अभिमानरूप बहड़ेकी छायामें आसुरी सम्पत्तिरूप कलियुग रहता है । आसुरी सम्पत्तिके क्रोध, लोभ,मोह, मद, इर्षा, दम्भ, पाखंड आदि जितने अवगुण हैं, वे सब अभिमानके आश्रित रहते हैं, क्योंकि अभिमान उनका राजा है । उसको आप छोड़ते नहीं तो क्रोध कैसे छूट जायगा ! इसलिये उस अभिमानको छोड़ दो ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे

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Jul
10
।। श्रीहरिः ।।

सहायता

जयश्रीकृष्ण

आजकी शुभ तिथि आषाढ़ शुक्ल दशमी, संवत-२०६८, रविवार

हरिशयनी एकादशीव्रत कल है (सबका)

थोड़े दिनोंसे ब्लॉगमें डोक-स्टॉककी लिंक से सत्संग पोस्ट करते थे, वह आजकल नहीं हो रहा है, और पुराने पोस्ट भी नहीं पढ़े जाते, अतः इस व्यवधानका समाधान कोई भी सत्संगी जानते हो वह कृपया संपर्क करें–

sadhakramesh@yahoo.com

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Jul
10
।। श्रीहरिः ।।

संसारमें रहनेकी विद्या

(गत ब्लॉगसे आगेका)

आप बाल-बच्‍चोंको व्यसन मत सिखाओ । कपड़े आदि बढ़िया (फैशनवाले) पहनाकर राजी होते हैं कि हमारे बच्‍चे ठीक हो रहे हैं । उनकी आदत बिगड़ रही है बेचारोंकी । इसलिए सादगी रखो, अपने भी सादगी, बच्‍चोंके भी सादगी । अच्छे ढंगसे काम करो, उत्साह रखो, काम-धन्धा ठीक करो । बाल-बच्‍चोंसे भी काम कराओ । आपके घर नौकर है (नौकर रखनेकी जरुरत है तो रखो), नौकर रखकर नौकरोंके वशीभूत मत हो जाओ । यदि नौकर बढ़िया काम नहीं करे, तो आपको भी सब काम आना चाहिये । नौकर जितना काम करते हैं, आपको भी आ जाय तो आपको चकमा नहीं दे सकते । रसोइया कहे–घी इतना लग गया । अरे ! हम जानते हैं, इतना घी कैसे लग गया ? हाँ साहब लग गया । कैसे बतायें यह बात ? आजकल काम-धन्धा करनेमें बेइज्जती समझने लगे हैं ।

माता सीता काम करती थीं, रसोई बनाती थीं । लक्ष्मण आदि थे, उन्हें बड़े प्यारसे भोजन कराती थीं । स्वयं खटकर परिश्रम करके सासुओंकी सेवा करती थीं । क्या वह छोटे घरकी हो गयीं ? सैकड़ों ही नहीं हजारों दासियाँ थीं, उनके सामने अपने घरका काम करती थीं । लड़नेमें तो बेइज्जती नहीं समझतीं, घरके काम करनेमें बेइज्जती समझती हैं; बड़े पतनकी बात है । अतः अपना समय ठीकसे लगाओ । अच्छी आदत बननेपर आपकी ग्राहकता हो जायगी । सब आपको चाहेंगे, आपकी आवश्यकता पैदा होगी । घरके, बाहरके सब लोग चाहेंगे और यदि ऐसा नहीं करोगे तो समय तो जायगा हाथोंसे और आदत बिगड़ जायगी । बिगड़ी हुई आदत साथ चलेगी, स्वभाव बिगड़ जायगा । यह जन्म-जन्मान्तरोंतक साथ चलेगा । स्वभाव जिसने अपना निर्मल, शुद्ध बना लिया है, उसने असली काम बना लिया है । अपने साथमें चलनेकी असली पूँजी संग्रह कर ली । स्वभावको शुद्ध बनाओ, निर्मल बनाओ । तो क्या होगा ? ममता छूटेगी । सेवा करनेसे अहंकार छूटेगा । निर्मम-निरहंकार हो जाओगे । संसारका काम करते-करते ऊँची-से-ऊँची स्थितिको प्राप्त हो जाओगे । बस, लग जाओ तब काम होगा । इसलिये भाइयोंसे, बहिनोंसे कहना है कि सत्संग सुनो और सुननेके अनुसार अपना जीवन बनाओ । ऐसा जीवन बनेगा तो जीवन-निर्वाह होगा और मनमें शान्ति भी रहेगी । ‘निर्ममो निरहंकारः सः शान्तिमधिगच्छति’ (गीता २/७१) । महान् शान्तिकी प्राप्ति होगी । इस प्रकार भगवद्गीता व्यवहारमें परमार्थ सिखाती है । युद्धके समयमें कह दिया–

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।

ततो उद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥

(गीता २/३८)

युद्धसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाय । कामको भगवान्‌का समझो, उत्साहसे करो । सेवा करनेवाला पवित्र हो जाता है । भगवान्‌का भजन हरदम करते रहो, जिससे सद्बुद्धि कायम रहे, भगवान्‌की याद बनी रहे ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

−‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे

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Jul
09
।। श्रीहरिः ।।
आजकी शुभ तिथि – आषाढ़ शुक्ल नवमी, संवत-२०६८, शनिवार

9july2011 -
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Jul
08
।। श्रीहरिः ।।
आजकी शुभ तिथि – आषाढ़ शुक्ल अष्टमी, संवत-२०६८, शुक्रवार
8july2011
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Jul
07
।। श्रीहरिः ।।
आजकी शुभ तिथि – आषाढ़ शुक्ल सप्तमी, संवत-२०६८, गुरुवार
7july2011
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Jul
06
।। श्रीहरिः ।।
आजकी शुभ तिथि – आषाढ़ शुक्ल पंचमी, संवत-२०६८, बुधवार
6july2011
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Jul
05
।। श्रीहरिः ।।
आजकी शुभ तिथि – आषाढ़ शुक्ल चतुर्थी, संवत-२०६८, मंगलवार
5july2011
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Jul
04
।। श्रीहरिः ।।
आजकी शुभ तिथि – आषाढ़ शुक्ल तृतीया, संवत-२०६८, सोमवार
4july2011
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Jul
03
।। श्रीहरिः ।।
आजकी शुभ तिथि – आषाढ़ शुक्ल द्वितीया, संवत-२०६८, रविवार
श्रीजगदीश रथयात्रा
3july2011
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Jul
02
।। श्रीहरिः ।।
आजकी शुभ तिथि – आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा, संवत-२०६८, शनिवार
2july2011
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Jul
02
।। श्रीहरिः ।।
आजकी शुभ तिथि – आषाढ़ अमावस्या, संवत-२०६८, शुक्रवार
01july2011
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