।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि—

आषाढ़ पूर्णिमा, वि.सं. २०६८, शुक्रवार

गुरुपूर्णिमा, व्यास-पूजा

व्यवहारमें परमार्थ

(गत ब्लॉगसे आगेका)

परिवार जितना आपके कहनेमें चलेगा, उतना ही आपके अधिक बन्धन होगा । जितना ही वह आपका कहना नहीं करेगा, उतना ही छुटकारा होगा, उतनी ही आपमें स्वतन्त्रता होगी, उतना ही आपको लाभ है । जितना वे कहना अधिक करेंगे, उतना ही आपको बन्धन होगा । मनुष्यको यह अच्छा लगता है कि दूसरे लोग मेरे अनुकूल चलें, मेरा कहना मानें । परन्तु यह बन्धन-कारक है । जहर चाहे मीठा ही हो, पर मारनेवाला होता है । इसी प्रकार अनुकूलता आपको भले ही अच्छी लगे, पर वह बाँधनेवाली है । वे उच्छृंखलता करें तो भी आप अच्छे-से-अच्छा बर्ताव करो । वे चाहे उम्रभर बुरा ही करें तो भी आप उकताओ मत । आपके लिये बहुत ही बढ़िया मौका है । उनके बुरा करनेपर भी आप अपना बर्ताव अच्छे-से-अच्छा करो ।

एक सज्जन थे । उन्होंने कहा कि आप कुछ भी करो, मेरेको गुस्सा नहीं आता । आप परीक्षा करके देख लो । दूसरेने कहा कि आपको गुस्सा नहीं आता, बहुत अच्छी बात है । आपको क्रोध दिलानेके लिये मैं अपना स्वाभाव क्यों बिगाडूँ ? तो सदैव यह भाव रहे कि हम अपना स्वाभाव अच्छा रखें ।

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।

(गीता १८/४५)

अपने कर्त्तव्यका ठीक पालन करो । उसका नतीजा अपने लिये भी ठीक ही होगा । परिवारके साथ इस तरह बर्ताव करोगे तो लोक और परलोक दोनों सुधरेंगे । यहाँ भी आपका भला होगा और वहाँ भी । गीतामें कहा है ‘नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः’ (४/३१) जो यज्ञ नहीं करता उसका यह लोक भी ठीक नहीं होता, फिर परलोक कैसे ठीक होगा ? यहाँ ‘यज्ञ’ का अर्थ कर्त्तव्य-पालन है । अपने कर्त्तव्यका पालन नहीं करता तो इस लोकमें भी सुख नहीं पाता और परलोकमें भी । जो अपना ही स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है, अपना ही आराम चाहता है, उसका संसारमें भी आदर नहीं होता और पारमार्थिक उन्नति भी नहीं होती । जो अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये काम करता है, वह संसारमें भी अच्छा माना जाता है । परमार्थ भी उसका शुद्ध हो जाता है, वह लोक और परलोक–दोनों जगह सुख पाता है ।

कुछ लोगोंमें यह धारणा है कि हम आध्यात्मिक उन्नति करेंगे तो व्यवहार ठीक नहीं होगा और संसारका व्यवहार ठीक करेंगे तो परमार्थ सिद्ध नहीं होगा । यह धारणा सही नहीं है । गीतामें इन दोनोंका समन्वय है, अच्छा बर्ताव करो तो अपना लोक-परलोक दोनों सुधर जायेंगे । व्यवहार भी अच्छा होगा और परमार्थ भी अच्छा होगा । व्यवहारमें परमार्थकी कला सीख लो । जैसे–एक दयालु जज होता है तो वह न्याय नहीं कर सकता और न्याय पूरा-का-पूरा ठीक करता है तो दया नहीं कर सकता । दया करे तो रियायत करने पड़े, तो न्याय नहीं कर सकता और न्याय ठीक-ठीक करे तो दया कैसे होगी ? परन्तु भगवान्‌की ऐसी बात है कि भगवान्‌ दयालु भी हैं और न्यायकारी भी हैं । इन दोनोंमें बाधा नहीं लगती, क्योंकि भगवान्‌ने कानून ही ऐसे बनाये हैं कि उस कानूनमें दया भरी हुई है । जैसे भगवान्‌ने कहा–‘अन्तकालमें मनुष्य जिसका स्मरण करता है, उसीके अनुसार गति होती है ।’

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे