।। श्रीहरिः ।।
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आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन अमावस्या, वि.सं.–२०६९, सोमवार
सोमवती अमावस्या
पारमार्थिक उन्नति धनके आश्रित नहीं

(गत ब्लॉगसे आगेका)
सज्जनो ! अपना उद्धार कर लो, अभी मौका है । भगवान्‌ने बड़ी कृपा करके यह मानव-शरीर दिया है । यह मानव-शरीर भगवान्‌का भजन करनेके योग्य है, इसलिये इसको निरर्थक नष्ट मत होने दो । इस संसारमें अपना कोई भी नहीं है, अपने तो एक परमात्मा ही हैं । यह जो आपके पास धन है, शरीर है, योग्यता है, यह संसारकी सेवाके लिये है । शरीर भी आपका नहीं है, मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ भी आपकी नहीं हैं, कुटुम्ब भी आपका नहीं है, रुपये-पैसे भी आपके नहीं हैं । ये तो दूसरोंकी सेवा करनेके लिये हैं । अपने लिये तो केवल परमात्मा ही हैं । इससे भी बढ़िया बात है कि आप परमात्माके लिये हो जाओ । परमात्मासे अपने लिये कुछ भी मत चाहो । जो परमात्मासे कुछ भी नहीं चाहता, उसकी गरज परमात्मा करते हैं !
एक बाबाजी थे । एक दिन वे एक ऊँची टोपी पहनकर बड़ी मस्तीसे भजन कर रहे थे । भगवान्‌ विनोदी ठहरे, वे बाबाजीके पास आये और बोले‒वाह-वाह, आज तो बड़ी ऊँची टोपी लगाकर बैठे हो ! बाबाजी बोले‒किसीसे माँगकर थोड़े ही लाया हूँ, अपनी है । भगवान्‌ने कहा‒मिजाज करते हो ? बाबाजी बोले‒उधार लाये हैं क्या मिजाज ? भगवान्‌ बोले‒तुम मेरेको जानते हो कि नहीं ? बाबाजी बोले‒अच्छी तरहसे जनता हूँ । भगवान्‌ने कहा‒मैं सबको कह दूँगा कि यह अभिमानी है, भक्त नहीं है, तब क्या दशा होगी ? दुनिया भक्त मानकर ही तो तुम्हारी सेवा करती है और तुम मिजाज करते हो ? बाबाजी बोले‒तुम कह दोगे तो मैं भी कह दूँगा कि मैंने भजन करके देखा है, भगवान्‌ कुछ भी नहीं हैं । तुम्हारी प्रसिद्धि तो हमने ही कर रखी है, नहीं तो कौन पूछता तुम्हें ?भगवान्‌ बोले‒ऐसा मत कहना । बाबाजीने कहा‒तो आप भी मत कहना, हम भी नहीं कहेंगे । इस प्रकार भक्त भगवान्‌की भी गरज नहीं करते । ऐसे भक्तोंके लिये भगवान्‌ कहते हैं‒‘मैं तो हूँ भगतनको दास, भगत मेरे मुकुटमणि ।’ भक्तोंमें ऐसा नहीं है कि साधु ही भक्त होते हैं, बहनें भी भक्त होती हैं ।
मीरा जाई मेड़ते            परणाई चितोड़ ।
राम भगतिके कारणे सकल सृष्टि को मोड़ ॥
राम दड़ी चौड़े पड़ी, सब कोई खेलो आय ।
दावा नहीं संतदास,       जीते सो ले जाय ॥
जाट भजो गूजर भजो, भावे भजो अहीर ।
तुलसी रघुबर नाम में, सब काहू का सीर ॥
कोई भी क्यों न हो, वह भगवान्‌का अंश है । भगवान्‌का अंश होनेसे प्रत्येक जीवका भगवान्‌पर हक लगता है; जैसे बालकका अपनी माँपर हक लगता है । भगवान्‌ हमें कपूत या सपूत कह सकते हैं, पर ‘पूत नहीं है’ अर्थात्‌ मेरा नहीं है‒ऐसा नहीं कह सकते । हम चाहे कपूत हैं, चाहे सपूत, पर पूत तो हैं ही, हैं तो हम भगवान्‌के ही । अब कपूताई दूर कर दो काम बन गया, बस । इतनी-सी बात है, कोई लंबी-चौड़ी बात नहीं ।
आप कहते हैं कि धनके बिना धार्मिक आयोजन कैसे होगा ? वास्तवमें उस धनको ही धार्मिक आयोजनोंकी गरज है, धार्मिक आयोजनोंको उस धनकी गरज नहीं है । जो धनकी गरज मानते हैं, वे धने दास हैं, धर्मके दास नहीं ।
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे