।। श्रीहरिः ।।
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आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल द्वितीया, वि.सं.–२०६९, बुधवार
सांसारिक सुख दुःखोंके कारण हैं
संयोगजन्य सुख लेनेवाला व्यक्ति अपना और संसारका‒दोनोंका नुकसान करता है । जितने भी संयोगजन्य सुख हैं, वे सब-के-सब दुःखोंके कारण हैं‒‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते’ (गीता ५/२२) । सुख भोगनेवाला अपने लिये और संसारके लिये भी दुःखोंका कारण बनता है अर्थात्‌ सबको दुःख देता है, सबकी हिंसा करता है । इसलिये संसारका सुखभोग बिना हिंसाके नहीं होता । पर जो सब जगह परमात्माको देखता है, वह अपनी और दूसरेकी हिंसा नहीं करता‒
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमिश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मं ततो याति परा गतिम् ॥
(गीता १३/२८)
सब जगह परमात्माको देखनेवाला एक विशेष आनन्दमें स्थित रहता है । वह आनन्द हिंसासे रहित है; क्योंकि वह आनन्द या सुख अपना स्वरूप है‒
ईस्वर अंस जीव अबिनासी ।
चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
(मानस ७/११७/१)
सांसारिक सुख भोगनेवाले व्यक्तिको देखकर दूसरोंके मनमें दुःख होता है । अपने पास भी वैसा सुख न होनेके कारण दूसरेके हृदयमें जलन होती है, दुःख होता है । अतः दूसरेके दुःखका कारण बननेवाला सुखका भोगी व्यक्ति हिंसा करनेवाला हुआ । अब कोई कहे कि जीवन्मुक्त महात्मा हो और उसके पास सांसारिक सुखकी सामग्री भी हो, तो उसे देखकर भी दूसरेको दुःख, जलन होती है । पर वास्तवमें महात्मा दूसरोंके दुःखका कारण नहीं होता । कारण यह कि जीवन्मुक्त महात्मा सांसारिक सुखका भोग नहीं करता । उसकी दृष्टिमें समस्त सांसारिक सुख दुःखरूप ही होते हैं‒‘दुःखमेव सर्वं विवेकिनः’ (योगदर्शन २/१५) । अतः उनकी दृष्टिमें संसारका सुख है ही नहीं । वह तो अपने-आपमें निज-सुखसे सुखी रहता है । उसका सुख परमात्माका है । जो दुःखी हो रहे हैं, उनका भी तो स्वरूप सुखरूप ही है‒‘चेतन अमल सहज सुखरासी’पर वे अपने निज-सुखसे विमुख होकर ही दुःख पा रहे हैं । यदि वे भी सांसारिक सुखसे विमुख होकर अपने सुखमय स्वरूपमें स्थित हो जायँ, तो दोनों ही सुखी हैं । इस सुखका बँटवारा नहीं होता । किसी महापुरुषके पास संसारके सुख और दुःख आ भी जाते हैं, तो वे उसे सुख या दुःख नहीं दे सकते । वह तो समुद्रकी भाँती शान्त और पूर्ण रहता है‒
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥
(गीता २/७०)
जैसे सब जल आकर समुद्रमें मिलते हैं, तो भी समुद्र अपनी मर्यादामें स्थित रहता है । ऐसे ही संसारके सब सुख आनेपर भी जीवन्मुक्त महापुरुष अपनी मर्यादामें स्थित रहता है, शान्त रहता है । परन्तु भोगोंकी कामनावाला पुरुष कभी सुखी नहीं हो सकता । भोग नहीं होते, तब उनके अभावसे दुःखी होता है और भोग होते हैं, तब अभिमान करके दुःख पाता है, जैसे दादकी बीमारीमें खुजली और जलन दोनों होती हैं; खुजली अच्छी लगती है और जलन बुरी । इसलिये सांसारिक भोग मिलनेसे जो सुख होता है, वह भी एक प्रकारकी व्यथा ही है । जीवन्मुक्त महात्माको कितने ही पदार्थ मिल जायँ, वह शान्त रहता है और पदार्थ न मिलें, तब भी वह शान्त रहता है । उसकी शान्ति पदार्थोंके अधीन नहीं होती । वह तो साधन-अवस्थामें भी सिद्धि-असिद्धिमें सम रहता है, फिर सिद्ध-अवस्थामें तो सम होगा ही ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे


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