।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल एकादशी, वि.सं.–२०६९, शनिवार
आमलकी एकादशी-व्रत
सुखासक्तिसे छूटनेका उपाय

(गत बोगसे आगेका)
एक राजपूत था और एक बनिया था । दोनों आपसमें भिड़ गये तो राजपूतको गिराकर बनिया ऊपर चढ़ बैठा । राजपूतने उससे पूछा‒अरे ! तू कौन है ? उसने कहा‒मैं बनिया हूँ । सुनते ही राजपूतने जोशमें आकर कहा कि अरे ! बनिया मेरेको दबा दे ! यह कैसे हो सकता है ! और चट बनियेको नीचे दबा दिया । यह तो एक दृष्टान्त है । तात्पर्य यह है कि आप तो निरन्तर रहनेवाले हो और कामना निरन्तर रहनेवाली है ही नहीं । जैसे राजपूतने सोचा कि मैं तो क्षत्रिय हूँ, मेरेको बनिया नहीं दबा सकता, ऐसे ही आप भी राजपूत हो, भगवान्‌के पूत हो; आप विचार करो कि असत्‌की कामना मेरेको कैसे दबा सकती है ? कामना भी असत्‌की और कामना खुद भी असत्‌, वह सत्‌को दबा दे‒यह हो ही नहीं सकता । बस, इतनी ही बात है । लम्बी-चौड़ी बात है ही नहीं । अब इसमें क्या कठिनता है, आप बताओ ? एकदम सीधी बात है । आप थोड़ी हिम्मत रखो कि मैं तो हरदम रहनेवाला हूँ । बालकपनसे लेकर अभीतक मैं वही हूँ । मैं पहले भी था, अब भी हूँ और बादमें भी रहूँगा, नहीं तो किये हुए कर्मोंका फल आगे कौन भोगेगा ? मैं तो रहनेवाला हूँ और ये शरीर आदि असत्‌ वस्तुएँ रहनेवाली हैं ही नहीं । इनके परवश मैं कैसे हो सकता हूँ ? नहीं हो सकता । आप हिम्मत मत हारो ।
हिम्मत मत छाड़ो नरां, मुख सूं कहतां राम ।
हरिया हिम्मत सूं कियां, ध्रुव का अटल धाम ॥
ये बातें बहुत सुगम हैं । आप पूरा विचार नहीं करते‒यह बाधा है । न तो स्वयं सोचते हो और न कहनेपर स्वीकार करते हो । अब क्या करें, बताओ ? आप सत्‌ हो और ये बेचारे असत्‌ है, आगन्तुक हैं । आप मुफ्तमें ही इनसे दब गये । अपने महत्त्वकी तरफ आप ध्यान नहीं देते । आप कौन है‒इस तरफ आप ध्यान नहीं देते । आप परमात्माके अंश हो । आपमें असत्‌ कैसे टिक सकता है ? यह आपके बलसे ही बलवान् हुआ है । इसमें खुदका बल नहीं है । यह तो है ही असत्‌ ! आप सत्‌ हो और आपने ही इसको महत्त्व दिया है ।
जैसे किसीका पुत्र मर गया, तो बड़ा शोक होता है कि मेरा लड़का चला गया ! लड़का तो एक बार मरा और शोक रोजाना करते हो, तो बताओ कि शोक प्रबल है या लड़केका मरना प्रबल है ? लड़का तो एक बार ही मर गया, खत्म हुआ काम, पर शोकको आप जीवित रखते हो । शोकमें ताकत कहाँ है रहनेकी ? शोक तो लड़केके मरनेसे पैदा हुआ है बेचारा ! उस शोकको आप रख सकोगे नहीं । कुछ वर्षोंके बाद आप भूल जाओगे । शोक आपसे-आप नष्ट हो जायगा । आप बार-बार याद करके उसको जीवित रखते हो, फिर भी उसको जीवित रख सकोगे नहीं । दस-पन्द्रह वर्षके बाद वह यादतक नहीं आएगा । इसलिये उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुको आप महत्त्व मत दो, उसकी परवाह मत करो । हमारी बात तो इतनी ही है कि आप असत्‌को महत्त्व क्यों देते हो ? अपने विवेकको महत्त्व क्यों नहीं देते ?
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘स्वाधीन कैसे बनें ?’ पुस्तकसे

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