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 (गत ब्लॉगसे
  आगेका) 
                  जैसे ‘मैं-पन’
  है, यह तो
  बदलता रहता
  है, मैं खाता
  हूँ, मैं सोता
  हूँ । मैं
  जाता हूँ;
  परन्तु मेरी
  सत्ता (होनापन)
  तो एक ही है ।
  सुषुप्ति-अवस्थामें
  ‘मैं-पन’ तो
  अज्ञानमें
  लीन हो जाता
  है; परन्तु आप ‘स्वयम्’
  तो रहते हैं । ‘मैं-पन’ के
  भावका-अभावका‒दोनोंका
  ज्ञान आपको
  खुदको होता
  है । अभी ‘मैं-पन’
  का भाव है,
  सुषुप्ति-अवस्थामें
  ‘मैं-पन’ का
  अभाव हो जाता
  है, तो ‘मैं-पन’
  का अभाव
  होनेपर भी
  मेरी सत्ता
  रहती है । तो ‘मैं-पन’
  से अलग हमारी
  स्वतन्त्र
  सत्ता है, ‘मैं-पन’
  तो प्रकट और
  अप्रकट होता
  है, पर हमारी
  सत्ता अप्रकट
  नहीं होती,
  प्रकट ही
  रहती है । हमारी
  सत्ताके साथ
  जब ‘मैं-पन’ भी
  नहीं है तो
  शरीरका साथ
  कहाँ है ? और जब
  शरीर भी साथ
  नहीं है तो स्त्री,
  पुरुष,
  कुटुम्बी
  साथ कहाँ है ?
  तो मैं खुद (स्वयं)
  तो इनसे अलायदा
  हूँ, ये सब
  उत्पत्ति-विनाशशील
  हैं । इनको
  मैं जानता
  हूँ, ये सब
  मेरे
  जाननेमें
  आते हैं । ये
  सब
  उत्पत्ति-विनाशशील
  हैं इसका
  मेरेको ज्ञान
  है । 
      तीसरी
  बात, ‘मैं’ कल था,
  वही आज हूँ और
  रात्रिमें
  भी मैं था, तो ‘मैं’
  नित्य-निरन्तर
  रहता हूँ ।
  ये निरन्तर
  नहीं रहते, मेरे
  सामने बनते-बिगड़ते
  हैं, मिटते
  हैं । इनको मैं
  महत्त्व
  देकर इनका
  आश्रय लेता
  हूँ, यह गलती
  करता हूँ । मैं जानता
  हूँ कि ये
  उत्पत्ति-विनाशशील
  हैं, ये मेरा
  आधार कैसे हो
  सकते हैं ? ये
  मेरा आश्रय
  कैसे हो सकते
  हैं ? ये
  मेरेको क्या
  सहारा दे सकते
  हैं ? जो कि  मैं
  इनसे अलायदा
  हूँ । ये सब
  मेरे
  जाननेमें
  आते हैं,
  सुषुप्तिमें
  कुछ भी ज्ञान
  नहीं था, यह भी
  जाननेमें
  आता है और जाग्रत्,
  स्वप्नमें
  जो ज्ञान
  होता है, यह भी
  मेरे जाननेमें
  आता है । मैं
  (स्वयं) इन
  सबको
  जाननेवाला
  हूँ; मैं
  जाननेवाला,
  जाननेमें
  आनेवाली वस्तुओंसे
  अलग हूँ ।
  इसमें कोई
  सन्देह है
  क्या ? सन्देह
  नहीं है न ? तो ‘मैं’
  इनसे अलग हूँ
  इसपर आप
  स्थिर हो जाओ ।
  दिनमें,
  रातमें,
  सुबह-शाम जब
  आपको समय
  मिले तब कहो
  कि मैं
  वास्तवमें
  इनके साथ
  नहीं हूँ और
  ये मेरे साथ
  नहीं है ।
  मैं इनके साथ
  सुषुप्तिमें
  भी नहीं रह
  सकता तो
  मरनेके बाद
  कैसे रहूँगा ?
  और ये मेरे साथ
  सुषुप्तिमें
  भी नहीं रह
  सकते तो सदा
  मेरे साथ
  कैसे रहेंगे ?
  अतः इनका
  हमारा
  सम्बन्ध
  नित्य
  रहनेवाला
  नहीं है ।
  इसका ज्ञान
  तो
  प्रत्यक्ष
  होना चाहिये
  न ? 
      संसारका
  आकर्षण न
  छूटे तो कोई
  परवाह नहीं,
  परन्तु यह
  ज्ञान तो हैं
  न; कि इनके साथ
  मेरा
  नित्य-सम्बन्ध
  नहीं है ? इस
  ज्ञानमें तो
  सन्देह नहीं
  है न ? यह
  बात आप धारण
  कर लो । आकर्षण‒छूटे-न-छूटे
  इसकी परवाह
  मत करो, पर
  मेरे साथ इसका
  सम्बन्ध
  नहीं है ।
  पहले नहीं था
  और फिर नहीं
  रहेगा । यह
  बात तो हमारे
  अनुभवकी है । इस
  जन्ममें भी
  जिस
  कुटुम्बके
  साथ, जिस घरके
  साथ, जिन
  रुपये-पैसोंके
  साथ,
  वस्तुओंके
  साथ आज हमारा
  सम्बन्ध है,
  यह सम्बन्ध
  पहले था क्या ?
  और अगाड़ी भी
  रहेगा क्या ?
  तो पहले
  हमारे साथ
  सम्बन्ध
  नहीं था, अगाड़ी
  इनका
  सम्बन्ध
  हमारे साथ
  नहीं रहेगा
  और जो अभी है,
  वही भी
  वियुक्त हो
  रहा है । यह
  बात मुझे
  अच्छी लगती
  है, इस वास्ते मैं
  बार-बार कहता
  हूँ । 
    (शेष
  आगेके
  ब्लॉगमें) 
‒ ‘भगवत्प्राप्ति
  सहज है’
  पुस्तकसे | 

