।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल तृतीया, वि.सं.–२०७०, शनिवार
मत्स्य-जयन्ती, गणगौर, वैशाखी
कर्म, सेवा और पूजा


(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒प्राणीसेवा ही प्रभु-सेवा है, सेवा और पूजामें अन्तर क्या है ?

उत्तर‒हाँ जी । काम कर देना सेवा है । पूजन होता है चन्दनसे, अगरबत्तीसे, दीपक दिखानेसे, आरती करनेसे, फूल चढ़ानेसे । यह पूजा होती है । इसको भी सेवा कह देते हैं, पर पूजा है यह । तो पूजा करनेमें जिसका हम पूजन करते हैं, उसको ऐसा कोई लाभ नहीं होता । पुष्प चढ़ा दिया तो क्या हुआ, चन्दन चढ़ा दिया तो क्या हुआ ? धूप-दीप कर दिया तो क्या मिल गया उसको ? उसको सुख ज्यादा होता है सेवा करनेसे । पग-चम्पी कर दी, स्नान करा दिया, कपड़े धो दिये । ऐसे यदि वह उनकी सेवा करे तो सुख ज्यादा होता है, पर सेवा बुद्धिसे भी विशेष अगर पूजा बुद्धिसे करता है तो स्वयं गद्‌गद हो जाता है । मस्त हो जाता है वह कहीं सेवाका काम मिले तो ! सेवामें पूजा-बुद्धि हो जाती है तो निहाल हो जाता है । चरण-चम्पी करता है एक तो और एक चरण छूता है । चरण छूनेमें, जिसके चरण छूता है, उसको कुछ नहीं मिलता । स्वयं अभिमान भले ही कर ले । और चरण-चम्पी करता है तो थकावट दूर होती है ।

भाव चरण छूनेका है और पूजा-बुद्धि है तो चरण छूनेमात्रसे जैसे बिजलीका करंट आता है, ऐसे ही उसके आनन्दका एक करंट आता है । ऐसे चरण-चम्पी करना सेवा है और चरण छूना पूजा है । यह पूजाका और सेवाका भेद है । जितना अपने अभिमानका त्याग होता है, उसको सुख कैसे पहुँचे ? उसको आराम कैसे पहुँचे ? यह सेवाभाव होता है । वह पूजनीय, आदरणीय है; वह हमारा भोजन भी स्वीकार कर ले, चन्दन भी स्वीकार कर ले, हमारा नमस्कार भी स्वीकार कर ले तो मैं निहाल हो जाऊँ ! यह पूजाका भाव है ।

जहाँ पूज्यभाव होता है, वहाँ भारी कैसे लगे ? वो तो त्याग करता रहता है, हरदम ही विचार करता रहता है, किस तरहसे मेरेको सेवा मिल जाय । सेवा मिल जाय तो अपना अहोभाग्य समझता है कि बस निहाल हो गया आज तो ! और ऐसा मालूम पड़ता है कि इनकी कृपासे ही यह हो रहा है । मेरेमें यह भाव है न, यह इनकी कृपा है । काम भी इनकी कृपासे होता है । वह तो जीवन्मुक्त हो गया महाराज ! इतना मस्त हो गया । उसकी तो सेवा-पूजा देखकर दूसरे आदमियोंका कल्याण हो जाय । अगर उसका भाव यह है तो ऐसी बात है और भारी लगता है तो आलस्य है, प्रमाद है, अभिमान आदि दोष है ।

यह बात है भैया ! जितना ही दुःख होता है, आनन्द नहीं आता है, उसमें अपने दोष है भीतर । अपने दोष न रहनेसे बहुत ही मौज होती है । जितना निर्दोष जीवन है, उतना उसके आनन्द रहता है । इस बातको समझते नहीं, इस वास्ते लोग चोरी करते हैं, चालाकी कर लेते हैं, ठग लेते हैं, उससे खुदको दुःख होगा, शान्ति नहीं रह सकती, उससे प्रसन्नता नहीं रह सकती । परन्तु पदार्थोंमें ज्यादा आसक्ति है, पदार्थोंको मूल्यवान समझता है; इस वास्ते झूठ-कपट कर, धोखा दे राजी होता है । यह महान्‌ पतनका रास्ता है । बहुत नुकसान कर लिया अपना ! और जितना निर्दोष जीवन होता है, अपना शुद्ध जीवन होता है; आलस्य, प्रमाद, झूठ, धोखेबाजी, लोभ, क्रोध, कामना कुछ नहीं होती, उतना अन्तःकरण निर्मल होता है, हल्का होता है, मस्ती रहती है, आनन्द हरदम रहता है‒
कंचन खान खुली घट माहीं ।
रामदास के     टोटो  नाहीं ॥

भीतरसे आनन्द उमड़ता है । जैसे शीत-ज्वर चढ़े तो भीतरसे ही ठण्ड लगती है । ऐसे भीतरसे आनन्द उठता है उसके, बाह्य-पदार्थोंसे सुख लेनेकी इच्छा नहीं होती ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे