।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.–२०७०, शनिवार
सत्संगसे लाभ कैसे लें ?


श्रोता‒सत्संगमें जैसी स्थिति रहती है, वैसी हर समय नहीं रहती, और हर समय सत्संग मिलता नहीं ?

स्वामीजी‒सत्संग न मिले तो पारमार्थिक पुस्तकें पढ़ो ।

श्रोता‒पुस्तकें पढ़नेको भी सदा समय नहीं मिलता ।

स्वामीजी‒-देखो, सब समय तो कोई बात रहती नहीं । संसारका सम्बन्ध भी सदा नहीं रहता । सत्संगमें जैसी स्थिति, जैसी वृत्तियाँ रहती हैं, वैसी हर समय नहीं रहतीं‒ऐसी बात नहीं है । स्थूल दृष्टिसे तो वैसा दीखता है, पर सूक्ष्म दृष्टिसे देखा जाय तो भीतर सत्संगके जो संस्कार रहते हैं, वे स्थायी रहते हैं । उनके स्थायी रहनेसे ही आपकी सत्संगमें रुचि रहती है । वे संस्कार जितने अधिक स्थायी होंगे, उतनी ही रुचि अधिक होगी और जितनी रुचि अधिक होंगी, उतना ही साधन बढ़ेगा । अतः तात्कालिक चीज (सत्संग) मिले तो उससे अपनी रुचिको बढ़ाना चाहिये । भीतर सत्संगका महत्त्व अंकित रहना चाहिये कि यह बहुत लाभदायक है, इसकी बड़ी भारी आवश्यकता है । ऐसा होनेसे कहीं भी सत्संग हो तो आपकी रुचि होगी कि हम सत्संग करें ।

दूसरी बात, अभी जो सत्संग सुननेसे रुचि होती है, वह बुद्धिमें, मनमें, अन्तःकरण होती है । वह रुचि वास्तवमें आपके खुदकी होनी चाहिये । खुदकी रुचि होगी तो वह मिटेगी नहीं; क्योंकि खुद मिटता नहीं । अन्तःकरण तो प्रकृतिका कार्य होनेसे बदलता रहता है । तत्त्वज्ञान होनेके बाद भी सिद्ध पुरुषोंमें सात्त्विक, राजस्, तामस वृत्तियाँ आती हैं (गीता १४/२२) । सिद्ध पुरुषोंमें और हमलोगोंमें फरक क्या रहता है ? उन वृत्तियोंके आनेपर सिद्ध पुरुष तो स्वाभाविक तटस्थ रहते हैं, पर हम उन वृत्तियाँके साथ मिल जाते हैं । सत्संगके समय जैसी वृत्तियाँ रहती हैं, और समयमें वैसी वृत्तियाँ नहीं रहतीं‒इसका कारण है अन्तःकरणकी अनित्यता, अन्तःकरणका एक रूप न रहना । बदलनेवाली चीजको जाननेवाले आप नहीं बदलते हो । रुचि और अरुचि‒दोनोंका जिसको अनुभव होता है, उसके साथ रुचि-अरुचि दोनोंका सम्बन्ध नहीं है ।

सात्त्विक, राजस्, तामस वृत्तियाँके साथ मिल जाना अस्वाभाविक है, और इनके साथ न मिलना स्वाभाविक है । स्वाभाविकताको जबतक नहीं पकड़ते, तबतक यह दशा रहती है । स्वयं (स्वरूप) अच्छे-मन्दे दोनोंको जाननेवाला है, दोनोंका प्रकाशक है, दोनोंका आश्रय है । उसके आश्रित ही अच्छी-मन्दी दोनों क्रियाएँ होती हैं । हमारी स्थिति उस स्वरूपमें होनी चाहिये‒‘समदुःखसुखः स्वस्थः’ (गीता १४/२४) । वह सम्पूर्ण वृत्तियाँका, संयोग-वियोगका आधार है, उनका निर्लिप्त प्रकाशक है । जैसे, दि़पक जल रहा है । अब आपलोग आयें तो दीपक वैसा ही है, आपलोग थोड़े आयें तो दीपक वैसा ही है । और कोई भी नहीं आये तो दीपक वैसा ही है । ऐसे ही आपका स्वरूप वृत्तियाँ आदिको प्रकाशित करनेवाला है, उनके साथ चिपकनेवाला नहीं है । अगर स्वरूप चिपकनेवाला होता तो एकके साथ ही रहता, दूसरेके साथ नहीं जाता । अगर आप सत्त्वगुणमें चिपक जाते तो रजोगुण-तमोगुणमें कौन जाता ? रजोगुणमें चिपक जाते तो सत्त्वगुण-तमोगुणमें कौन जाता ? तमोगुणमें चिपक जाते तो सत्त्वगुण-रजोगुणमें कौन जाता ? आपका चिपकानेका स्वभाव नहीं है । जाग्रत्‌, स्वप्न, और सुषुप्ति‒ये तीनों अवस्थाएँ आपके सामने आती हैं, पर आप किसी भी अवस्थाके साथ हरदम नहीं रहते । अवस्थाएँ बदलती हैं, आप नहीं बदलते । आप आने-जानेवाली वृत्तियाँके साथ, अवस्थाओंके साथ मिल जाते हो, इसीसे गलती होती है । इसमें आप तटस्थ रहो‒‘देखो निरपख होय तमाशा ।’ कभी नफा हुआ, कभी नुकसान हुआ, किसीका जन्मना हुआ, किसीका मरना हुआ, किसीका संयोग हुआ, किसीका वियोग हुआ‒यह तो होता ही रहता है, पर हम इसके साथ नहीं हैं और यह हमारे साथ नहीं है । ये बदलनेवाले हैं, हम बदलनेवाले नहीं हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे