(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
(४)
जैसे
हम कहते हैं
कि यह मनुष्य
है, यह पशु है,
यह वृक्ष है, यह मकान
है आदि, तो
इसमें ‘मनुष्य,
पशु, वृक्ष,
मकान’ आदि तो
पहले नहीं थे,
पीछे भी नहीं
रहेंगे तथा
वर्तमानमें
भी
प्रतिक्षण
अभावमें जा रहे
हैं । परन्तु ‘है’ रूपसे
जो सत्ता है,
वह सदा
ज्यों-की-त्यों
है । तात्पर्य है
कि ‘मनुष्य,
पशु, वृक्ष,
मकान’ आदि तो
संसार (असत्)
है और ‘है’
परमात्मतत्त्व
(सत्) है ।
इसलिये ‘मनुष्य,
पशु, वृक्ष,
मकान’ आदि तो
अलग-अलग हुए,
पर ‘है’ वही रहा ।
इसी तरह मैं
मनुष्य हूँ,
मैं पशु हूँ,
मैं देवता
हूँ आदिमें
शरीर तो
अलग-अलग हुए,
पर ‘हूँ’ वही
रहा ।
संसारकी
तो सत्ता
नहीं है और
परमात्मतत्त्वका
अभाव नहीं है ।
अतः जो
निरन्तर
बदलता है,
उसका भाव कभी
नहीं हो सकता
और जो कभी
नहीं बदलता,
उसका अभाव
कभी नहीं हो
सकता । ‘नहीं’
कभी ‘है’ नहीं
हो सकता और ‘है’
कभी ‘नहीं’
नहीं हो सकता । असत् कभी
विद्यमान
नहीं है और ‘सत्’
सदा
विद्यमान है ।
जिसका अभाव
है, उसीका
त्याग करना
है और जिसका
भाव है, उसीको
प्राप्त
करना है‒इसके
सिवाय और
क्या बात हो सकती है ! ‘है’
को स्वीकार
करना है और ‘नहीं’
को अस्वीकार
करना है‒यही
वेदान्त है,
वेदोंका खास
निष्कर्ष है ।
(५)
असत्की
नित्यनिवृत्ति
है और सत्की
नित्यप्राप्ति
है । नित्य-निवृत्तकी
निवृत्ति और
नित्यप्राप्तकी
प्राप्तिमें
क्या कठिनता
और क्या
सुगमता ? क्या
करना और क्या
न करना ? क्या
पाना और क्या
खोना ?
क्योंकि वह
तो स्वतःसिद्ध
है ।
खोया
कहे सो बावरा, पाया
कहे सो कूर ।
पाया
खोया कुछ
नहीं,
ज्यों-का-त्यों
भरपूर ॥
जब सत्के
सिवाय कुछ है
ही नहीं, तो
फिर इसमें
क्या अभ्यास
करें ? क्या
चिन्तन करें ?
इसमें न कुछ
करना है, न कुछ
सोचना है, न
कुछ निश्चय
करना है । असत्को
मिटाना भी गलती
है और उसको
रखनेकी अथवा
प्राप्त
करनेकी चेष्टा
करना भी गलती
है । अतः उसको
न मिटाना है, न
रखना है,
प्रत्युत
उसकी
उपेक्षा
करनी है । जो
नहीं है, वही
मिटता है और
जो है, वही
मिलता है । अतः असत्की
निवृत्ति
करनी ही नहीं
है; क्योंकि असत्
नित्य-निवृत्त
है और सत् नित्य-निरन्तर
प्राप्त है—ऐसा
विचार करके
चुप हो जायँ,
कुछ भी चिन्तन
न करें । न
संसारका
चिन्तन करें;
न
परमात्माका
चिन्तन करें ।
क्योंकि
चिन्तन
करनेसे हम
संसार (अन्तःकरण)
के साथ जुड़ते
हैं और
परमात्मासे
दूर होते हैं ।
अतः चिन्तन
नहीं करना है,
प्रत्युत
चिन्तन करनेकी
शक्ति जिससे
प्रकाशित
होती है,
उसमें अपनी
स्थितिका
अनुभव करना
है, जो कि
स्वतःसिद्ध
है । जिस
ज्ञानके
अन्तर्गत
वृत्तियाँ
दीखती हैं, उस
ज्ञानमें
अपनी
स्थितिका
अनुभव करना
है, जो कि
स्वतःसिद्ध
है ।
(६)
यद्यपि
भाव परमात्माका
ही है, संसारका
नहीं, तथापि
मनुष्यसे
भूल यह होती
है कि वह पहले
संसार (शरीर)
को देखकर फिर
उसमें परमात्माको
देखता है,
पहले
आकृतिको
देखकर फिर
भावको देखता
है । ऊपर
लगायी हुई
पालिश कबतक
टिकेगी ?
साधकको विचार
करना चाहिये
कि परमात्मा
पहले थे या संसार
पहले था ?
स्वयं (स्वरूप)
पहले था या
शरीर पहले था ?
विचार
करनेपर
सिद्ध होता
है कि
परमात्मा
पहले हैं,
संसार पीछे
है; स्वयं
पहले है, शरीर
पीछे है; भाव
पहले है, आकृति
पीछे है ।
इसलिये
साधककी
दृष्टि पहले
भावरूप
परमात्मा या
चिन्मय सत्ताकी
तरफ जानी
चाहिये,
संसार या
शरीरकी तरफ नहीं
। हम
संसारमें हैं
और
परमात्माको
प्राप्त
करना है‒ऐसा
मानना ही
गलती है;
क्योंकि
वास्तवमें
हम
परमात्मामें
ही हैं ।
संसारकी तो
सत्ता ही
नहीं है‒ ‘नासतो
विद्यते
भावः’ । साधककी
दृष्टि
भावरूप
परमात्माकी
तरफ ही रहनी
चाहिये,
अभावरूप
संसारकी तरफ
नहीं, प्रत्युत
संसारसे
विमुखता
होनी चाहिये ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘अमरताकी
ओर’
पुस्तकसे
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