।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
गीताकी विलक्षण बात

(गत ब्लॉगसे आगेका)
अर्पण करनेसे भगवान्‌की पुष्टि हो जायगी, उनका खजाना बढ़ जायगा, यह बात नहीं है । भगवान्‌ने आत्मने पद ‘कुरुष्व’ पदका प्रयोग किया है‒‘तत्कुरुष्व मदर्पणम्’तात्पर्य है कि हम अर्पण करके भगवान्‌का घाटा नहीं मिटाते हैं, प्रत्युत अपना ही घाटा, अपनी ही आफत मिटाते हैं अर्थात् अर्पण करनेका हमें ही फल मिलेगा, हमारा ही कल्याण होगा । अगर ठीक अर्पण किया जाय तो अर्पक, अर्पण, अर्पित वस्तु और अर्प्य‒चारों एक अर्थात्‌ भगवत्स्वरूप हो जायँगे । कारण कि अर्पक (अर्पण करनेवाला), अर्पणरूपी क्रिया, अर्पित वस्तु और अर्प्य (भगवान्‌)‒चारों तत्त्वसे एक परमात्मा ही हैं‒‘वासुदेवः सर्वम्’

       ठाकुरजीको भोग लगाकर फिर प्रसाद पाते हैं तो करोड़पति-अरबपति सेठ भी प्रसाद लेनेके लिये हाथ फैलाते हैं और एक कणका भी मिल जाय तो खुश हो जाते हैं । क्या वे मिठाईके भूखे हैं ? अगर हम कहें कि मिठाई माँगते हैं, इनको दस रुपयेकी मिठाई लाकर दे दो तो वे नाराज हो जायँगे । कारण कि वे मिठाईके नहीं, प्रसादके भूखे हैं । ठाकुरजीके अर्पण करनेसे वह वस्तु प्रसाद हो गयी, महान्‌ पवित्र अर्थात्‌ भगवत्स्वरूप हो गयी ! इसी तरह हम सब कुछ भगवान्‌के अर्पण कर दें तो वह सब-का-सब प्रसाद हो जायगा । हम भोजन करें तो ठाकुरजीका प्रसाद, कपड़ा पहनें तो ठाकुरजीका प्रसाद, माताएँ-बहनें गहने पहनें तो ठाकुरजीका प्रसाद‒सब कुछ ठाकुरजीका प्रसाद अर्थात्‌ भगवत्स्वरूप हो जायगा ।
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं ।
प्रभु प्रसाद   पट  भूषन  धरहीं ॥
                                        (मानस, अयोध्या १२९/१)
        भगवान्‌के अर्पण करनेका तात्पर्य है‒मेरापन छोड़ना । मेरापन करनेसे वस्तुएँ अपवित्र हो जाती हैं और मेरापन सर्वथा छोड़नेसे महान्‌ पवित्र अर्थात्‌ भगवत्स्वरूप हो जाती हैं । आस्तिक गृहस्थोंके घरोंमें ठाकुरजीका मन्दिर होता है और माताएँ-बहनें घरवालोंसे पूछती हैं कि आज ठाकुरजीके लिये क्या बनेगा ? यह हमारी हिन्दू-संस्कृतिकी सभ्यता है । रसोई भी अपने लिये नहीं बनाती, प्रत्युत ठाकुरजीके लिये बनाती है । गीता कहती है‒
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥
                                                        (३/१३)
‘जो केवल अपने लिये ही पकाते हैं, वे पापीलोग पापका ही भक्षण करते हैं ।’

       अगर यह कहें कि आज ठण्डी ज्यादा है, इसलिये ठाकुरजीको गरमागरम हलवेका भोग लगाओ, और अपने मुँहमें पानी आता हो तो यह ठाकुरजीको भोग नहीं लगेगा; क्योंकि यह जूठन हो गया । परन्तु ठाकुरजीके लिये बनी हुई रसोईमें नमककी परीक्षा करनेके लिये थोड़ी चीज लेकर (रसोईके बाहर जाकर) चख भी लें तो वह रसोई जूठी नहीं होगी । इस प्रकार मनमें खानेकी हो तो न चखनेपर भी वह जूठन हो जाता है और मनमें खानेकी न हो तो नमककी परीक्षाके लिये चखनेपर भी वह जूठन नहीं होता; क्योंकि भावकी प्रधानता है । इसलिये अपने मनमें खानेकी न हो और ठाकुरजीको भोग लगाया जाय । फिर उसको ठाकुरजीका प्रसाद समझकर आनन्दपूर्वक पाया जाय ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे