।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ पूर्णिमा, वि.सं.–२०७०, रविवार
पूर्णिमा
गीताकी विलक्षण बात

(गत ब्लॉगसे आगेका)
         रतनगढ़के सन्त बखतनाथजी महाराजकी बात सुनी है । वे बड़े ऊँचे महात्मा थे । असमसे एक आदमी बढ़िया एरण्डी लाया और उनके पास रखकर बोला कि महाराज ! सरदीके समय इसको आप काममें लें । कुछ देरके बाद एक पण्डितजी आये । उन्होंने वह एरण्डी अपने हाथमें लेकर देखी और उसकी प्रशंसा करते हुए कहा कि महाराज ! यह कपड़ा तो बड़ा अच्छा है ! देखकर उसको रख दिया । जब पण्डितजी जाने लगे, तब महात्माने कहा कि इस एरण्डीको आप ले जाओ । पण्डितजी बोले कि महाराज ! यह तो आपके लिये आयी है । वह आदमी बड़े प्रेमसे आपके लिये लाया है; अतः आप रखें । महात्मा बोले कि नहीं पण्डितजी ! इसको आप ले जायँ । पण्डितजी बोले कि मैं कैसे ले जाऊँ ? यह तो आपकी ही है । महात्मा बोले कि यह हमारे कामकी नहीं है । आप बुरा मत मानना, आपको यह पसन्द आ गयी तो अब यह आपकी हो गयी ! पण्डितजीको लेनेमें बड़ा संकोच हुआ, पर महात्माने वह एरण्डी उनको जबर्दस्ती दे ही दी । कारण यह था कि पण्डितजीका उस एरण्डीमें मन चलनेसे वह उच्छिष्ट, अशुद्ध हो गयी, महात्माके कामकी नहीं रही । इसी तरह जिस वस्तुमें हमारा मन चल जाता है, हमारा राग हो जाता है, वह वस्तु अशुद्ध हो जाती है ।

      अपनी मानते ही वस्तु अशुद्ध हो जाती है और भगवान्‌की मानते ही वह शुद्ध और भगवत्स्वरूप हो जाती है । इसी तरह अपने-आपको भगवान्‌से अलग मानते ही हम अशुद्ध हो जाते हैं और भगवान्‌का मानते ही शुद्ध और भगवत्स्वरूप हो जाते हैं । वास्तवमें सब वस्तुएँ भगवान्‌की और भगवत्स्वरूप ही हैं । उनको हमने भगवान्‌से अलग और अपना मान लिया, यह हमारी भूल है । इस भूलको मिटाना है । इस भूलको मिटा दें तो शुभ-अशुभ कर्मोंका बन्धन मिट जायगा और ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव हो जायगा ।

        प्रश्न‒हमारे किए हुए कर्मोंके फलस्वरूप जो वस्त्तु हमें मिलती है, वह हमारी ही तो हुई ! फिर उसको हम अपना क्यों न मानें ?

      उत्तर‒जिससे हमने कर्म किये, वह क्रियाशक्ति भी हमारी नहीं है और उसके फलस्वरूप मिलनेवाली वस्तु भी हमारी नहीं है । कारण कि क्रियाशक्ति और वस्तु‒दोनों ही भगवान्‌से मिली हुई हैं और बिछुड़नेवाली हैं । शरीर कमजोर हो जाय, लकवा मार जाय तो हम क्या कर सकते हैं ? कर्मफल भी अपना नहीं है; अतः उसका भोग बाँधनेवाला है‒‘फले सक्तो निबध्यते’ (गीता ५/१२)कर्म, कर्म-सामग्री, करनेकी योग्यता, बल आदि कुछ भी अपना नहीं है । इतना ही नहीं, कर्म करनेका विवेक भी अपना नहीं है, प्रत्युत भगवान्‌से मिला हुआ है ।

      जो वस्तु सदा हमारे साथ नहीं रह सकती और जिसके साथ हम सदा नहीं रह सकते, जिसपर हमारा आधिपत्य नहीं चलता, जो मिली है तथा बिछुड़नेवाली है, वह वस्तु अपनी कैसे हो सकती है ? कदापि नहीं हो सकती । जो वस्तु अपनी है ही नहीं, उसकी कामना कैसे होगी ? उसके त्यागका अभिमान भी कैसे आयेगा ? उसको अपना मान लिया‒यह बेईमानी थी । उसका त्याग कर दिया तो केवल अपनी बेईमानीका ही त्याग किया । इसमें अभिमान किस बातका ? बेईमानीके त्यागका नाम ही मुक्ति है ।

        जो वस्तु हमारी नहीं है, प्रत्युत दूसरेकी (भगवान्‌की) है और जो निरन्तर हमारा त्याग कर रही है, उसका भी त्याग अगर कठिन है तो फिर सुगम क्या है ? उसको अपना मानकर अपने पास रखनेमें ही कठिनता पड़ती है, उसका त्याग करनेमें क्या कठिनता है ? अगर ऐसा मानें कि त्याग करना कठिन है तो उसको अपने पास रखना असम्भव है । असम्भवकी अपेक्षा तो कठिन भी सुगम ही है । एक जवान लड़केने मुझे बताया कि ‘ हमारे मकानमें रहनेवाली एक युवा लड़की बार-बार कुचेष्टा करती थी, पर मैं कभी विचलित नहीं हुआ ! मैंने कहा कि ‘तुम बड़े जितेन्द्रिय हो’ तो वह बोला कि ‘मैं बड़ा जितेन्द्रिय हूँ‒यह बात नहीं है, प्रत्युत केवल इस बातसे मैं विचलित नहीं हुआ कि उस लड़कीपर मेरा हक नहीं लगता !’ अतः जिस वस्तुपर हमारा हक नहीं लगता, जो हमारी नहीं है, उसक हम अपना कैसे स्वीकार करें ? उसको अपना और अपने लिये स्वीकार करना बेईमानी है । सब दुःख, सन्ताप, नरक, जन्म-मरण आदि इस बेईमानीके ही फल हैं । इस बेईमानीके कारण ही संसार दुःखदायी होता है, जो कि वास्तवमें भगवत्स्वरूप ही है । अगर इस बेईमानीका त्याग कर दें अर्थात्‌ एक भगवान्‌के सिवाय अन्य किसको भी अपना न मानें तो ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव हो जायगा ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒ ‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे