।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल एकादशी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
श्रीहरिशयनी एकादशी-व्रत (सबका)
गीताकी शरणागति
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
गीता शरणागतिसे ही शुरू होती है और शरणागतिमें ही समाप्त होती है । भगवान्‌ श्रीकृष्ण और अर्जुन साथ-साथ रहा करते थे । श्रीमद्भागवतमें अर्जुन कहते हैं‒
                      शय्यासनाटनविकत्थनभोजनादि-
                                         ष्वैक्याद् वयस्य ऋतवानिति विप्रलब्धः ।
                      सख्युः सखेव पितृवत्तनयस्य सर्वं
                                          सेहे   महान्‌   महितया  कुमतेर  घं   मे
                                                                                                                                                        (१/१५/१९)

     ‘भगवान्‌ श्रीकृष्णके साथ सोने, बैठने, घूमने, बातचीत करने और भोजनादि करनेमें मेरा-उनका ऐसा सहज भाव हो गया था कि मैं कभी-कभी ‘हे सखे ! तुम तो बड़े सत्यवादी हो !’ ऐसा कहकर आक्षेप भी करता था । परन्तु वे महात्मा प्रभु अपने बड़प्पनके अनुसार मुझ कुबुद्धिके उन समस्त तिरस्कारोंको वैसे ही सहा करते थे, जैसे सखा अपने सखाके या पिता अपने पुत्रके सब तिरस्कार सहा करता है ।’

      अर्जुनके साथ इतनी घनिष्ठ मित्रता होते हुए भी भगवान्‌ श्रीकृष्णने उनको पहले कभी गीताका उपदेश नहीं दिया । परन्तु युद्धके अवसरपर, जब दोनों तरफसे शस्त्र चलनेकी तैयारी हो रही थी‒‘प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः’ (गीता १/२०), तब भगवान्‌ने अर्जुनको गीता सुनायी ! क्या गीतोपदेश देनेके लिये यही एकान्तका बढ़िया समय था ? इसका उत्तर यह है कि पहले अर्जुन इस प्रकार व्याकुल होकर भगवान्‌की शरण नहीं हुए थे । जब उन्होंने दोनों पक्षकी सेनाओंमें अपने सगे-सम्बन्धियोंको देखा, तब वे सन्देहमें पड़ गये कि मैं युद्ध करूँ अथवा न करूँ ? युद्धमें हमारी विजय होगी अथवा कौरवोंकी ? मेरा कल्याण युद्ध करनेमें है अथवा न करनेमें ? अतः उन्होंने भगवान्‌की शरण लेते हुए प्रार्थना की‒
                      कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
                             पृच्छामि    त्वां   धर्मसम्मूढचेताः ।
                      यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
                                                शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥
                                                                 (गीता २/७)
          ‘कायरताके दोषसे उपहत स्वभाववाला और धर्मके विषयमें मोहित अन्तःकरणवाला मैं आपसे पूछता हूँ कि जो निश्चित श्रेय हो, वह मेरे लिये कहिये । मैं आपका शिष्य हूँ । आपके शरण हुए मेरेको शिक्षा दीजिये ।’

         इस प्रकार गीताके आरम्भमें अर्जुन भगवान्‌की शरण लेकर अपने कल्याणका उपाय पूछते हैं और अन्तमें भगवान्‌ अपनी शरणमें आनेकी आज्ञा देते हैं‒‘मामेकं शरणं व्रज’ (गीता १८/६६)

        अर्जुनने भगवान्‌से पहले तो यह कहा कि ‘मैं आपकी शरण हूँ, मेरेको शिक्षा दीजिये’, पर इसके तुरन्त बाद वे ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’‒ऐसा कहकर चुप हो गये‒‘न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह’ (गीता २/९) । यह बात भगवान्‌को ठीक नहीं लगी, पर वे कुछ बोले नहीं । अत्यधिक कृपालु होनेके कारण भगवान्‌ने उपदेश देना शुरू कर दिया ।

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे