।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण द्वादशी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
कर्मयोगका तत्त्व
 

       वास्तवमें कर्मयोग क्या है‒इस बातको जाननेवाले बहुत कम है । तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषका मिलना कठिन है, पर कर्मयोगके तत्त्वको जाननेवाला मिलना उससे भी ज्यादा कठिन है ! लगभग पाँच हजार वर्ष पहले भगवान्‌ने कहा था कि बहुत समय बीत जानेके कारण वह कर्मयोग लुप्तप्रायः हो गया‒‘स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप’ (गीता ४/२) । अब तो यह बहुत ही लुप्त हो गया है । ग्रन्थोंमें कर्मयोगका विवेचन नहीं आता । पढ़ाईमें भी कर्मयोगका विवेचन नहीं आता । सत्संगमें भी कर्मयोगका विवेचन नहीं मिलता । इसका अध्ययन लुप्तप्रायः है । इसलिये कर्मयोगकी बात कठिन मालूम देती है । कर्मयोगका विवेचन करनेमें कई घण्टे लग सकते हैं । मैं उसकी थोड़ी सार-सार बात बताता हूँ ।

         सबसे पहली बात यह है कि चाहे ‘कर्मयोग’ कह दो, चाहे ‘निष्काम कर्म’ कह दो, एक ही बात है । ‘निष्काम कर्मयोग’ शब्द बनता ही नहीं । इसका अर्थ ठीक नहीं बैठता । परन्तु अच्छे-अच्छे समझदार भी ‘निष्काम कर्मयोग’ कह देते हैं ! इसलिये यह बात कहनेमें जरा कठिन पड़ती है कि ‘निष्काम कर्मयोग’ कहना बिलकुल गलत है । निष्काम कर्म कह दो या कर्मयोग कह दो, दोनों ठीक हैं । पर ‘निष्काम कर्मयोग’ कैसे बनेगा ? परन्तु अब क्या करें ? किसको कहें ?

        हमें एक बड़ा दुःख है कि भाइयोंमेंसे और बहनोंमेंसे कोई भी इस तत्त्वको जाननेके लिये जिज्ञासु नहीं है, जाननेके लिये तैयार नहीं है । माननेके लिये मैं आग्रह करता ही नहीं । कम-से-कम यह है क्या‒इसको जानो तो सही । मानो या मत मानो, आपकी मरजी । परन्तु तत्त्व क्या है‒ऐसी भीतर लगन तो लगे । मेरी धारणामें इस तत्त्वको समझनेमें आप अयोग्य नहीं हैं, अनधिकारी नहीं हैं । आप सब-के-सब समझ सकते हैं । परन्तु समझना चाहे ही नहीं, उसका क्या करें ?

       योगकी परिभाषा गीताने दो जगह की है‒समताका नाम योग है‒‘समत्वं योग उच्यते’ (२/४८) और दुःखोंके संयोगका सर्वथा वियोग हो जाय, इसका नाम योग है‒‘तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्‌ज्ञितम्’ (६/२३) । सम क्या है ? सम हैं ब्रह्म‒‘निर्दोषं ही समं ब्रह्म’ (५/१९) । दुःखोंका अत्यन्त अभाव कब होता है ? परमानन्दकी प्राप्ति होनेपर होता है । कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग और हठयोग, राजयोग, मन्त्रयोग आदि कई योग हैं । उन सब योगोंका तात्पर्य है कि परमात्माके साथ जो नित्ययोग अर्थात्‌ नित्य-सम्बन्ध है, उसकी जागृति हो जाय । परमात्माका जीवके साथ सदासे नित्ययोग है । कर्मयोग उसको कहते हैं, जिसमें कर्म संसारके लिये हो जाय और योग परमात्माके साथ हो जाय । अब उसको चाहे निष्कामभावसे कर्म करना कह दो, चाहे कर्मयोग कह दो ।

          श्रोता‒कर्मयोगसे परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कैसे होगी ?

        स्वामीजी‒अब ध्यान दें । आपकी शंका है कि हम कर्म तो संसारके हितके लिये करते हैं, फिर इससे परमात्माकी प्राप्ति कैसे हो जायगी ? जैसे बद्रीनारायण जा रहे हैं तो द्वारिका कैसे पहुँच जायँगे ? कर किधर रहे हैं और प्राप्ति किधर हो रही है‒ऐसा कहीं होता है ? जा रहे हैं उत्तरमें और पहुँच जायँ दक्षिणमें अथवा जा रहे हैं दक्षिणमें और पहुँच जाय उत्तरमें‒यह कैसे होगा ? सम्भव ही नहीं । इसलिये शंका होती है । बहुत ठीक शंका है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्‌से अपनापन’ पुस्तकसे