।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
कर्मयोगका तत्त्व
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
        कर्म करनेकी सब सामग्री संसारकी है । यह पांचभौतिक स्थूलशरीर स्थूल-सृष्टिका एक अंश है, सूक्ष्मशरीर समष्टि सूक्ष्म-सृष्टिका एक अंश है और कारणशरीर कारण-सृष्टिका एक अंश है । संसारकी सामग्रीसे कर्म करके अपने लिये चाहते हैं‒यही महान्‌ अनर्थका हेतु है । यही असत्‌का, नाशवान्‌का संग है, जिससे जन्म-मरण होता है ।

         एक बहुत ही विलक्षण बात बताऊँ ! आपके पास कितनी योग्यता है, कितनी सामर्थ्य है, कितने पदार्थ हैं, कितनी विद्या है‒इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता । बड़े-से-बड़ा विद्वान और मूर्ख-से-मूर्ख भी अपने लिये कोई कर्म न करे तो मुक्त हो जायगा ! इसमें योग्यता आदि कोई काम नहीं देगी; क्योंकि वह तो उत्पत्ति-विनाशवाली है, आने और जानेवाली है; अतः उसके द्वारा नित्य रहनेवाला तत्त्व थोड़े ही मिलेगा ! आपके पास बढ़िया या घटिया कैसी सामग्री है, कितनी योग्यता है, आप कैसे अधिकारी हैं‒इसकी कोई आवश्यकता नहीं है । इसकी आवश्यकता वहाँ होती है, जहाँ योग्यता काम करती है, विद्या काम करती है, सामग्री काम करती है । ये चीजें संसारमें काम आती हैं । संसारमें आपकी जैसी योग्यता, सामर्थ्य होगी, वैसा मिलेगा । संसारमें अधिकार योग्यताके अनुसार मिलता है । आप कर्म करोगे, योग्यता लाओगे, उसके अनुसार आपको संसारका फल मिलेगा । परन्तु भगवत्प्राप्तिमें इन चीजोंकी कोई आवश्यकता नहीं है । वहाँ केवल त्यागकी आवश्यकता है ।

        आपके सामने कैसी ही परिस्थिति हो, चाहे सौम्य हो या घोर; उसीमें भगवत्प्राप्ति हो सकती है । अर्जुनने भी कह दिया कि मेरेको युद्ध-जैसे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं‒‘घोरे कर्मणि किं नियोजयसि’ (गीता ३/१) ? युद्धमें दिनभर मनुष्योंका गला काटनेका लक्ष्य रहता है । ऐसे हिंसात्मक कर्मको करते हुए भी मनुष्यका कल्याण हो सकता है ! भगवान्‌ कहते हैं‒
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥
                                                 (गीता २/३८)
         (जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान करके फिर युद्धमें लग जा । इस प्रकार युद्ध करनेसे तू पापको प्राप्त नहीं होगा ।) पापका निवास विषमतामें है, समतामें नहीं । समताका नाम योग है । इसलिये समतामें स्थित होकर युद्ध करनेसे पाप नहीं लगता । वास्तवमें जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान करना नहीं है, प्रत्युत वे तो स्वाभाविक ही समान हैं । जैसे, सुख आते हुए अच्छा लगता है, जाते हुए बुरा लगता है और दुःख आते हुए बुरा लगता है, जाते हुए अच्छा लगता है । एक तरफ सुख अच्छा और एक तरफ दुःख अच्छा । एक तरफ सुख बुरा और एक तरफ दुःख बुरा । सुख और दुःखमें क्या भेद हुआ ? इन दोनोंमें जो राग-द्वेष कर लेते हैं, बस कर्मयोगमें यही खास बाधा है । राग-द्वेषके कारण ही मनुष्य कर्मोंसे लिप्त हो जाता है, बँध जाता है ।

       कर्मयोगकी महिमा गाते हुए भगवान्‌ पाँचवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें कहते हैं‒‘जो न किसीसे द्वेष करता है और न किसीकी इच्छा करता है, वह नित्य-संन्यासी समझनेयोग्य है; क्योंकि द्वन्द्वोंसे रहित मनुष्य सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।’ जो राग-द्वेष नहीं करता; वह कर्मयोगी नित्य-संन्यासी है । लाभ-हानि, सुख-दुःख, मान-अपमान, निन्दा-स्तुति, जीना-मरना आदि द्वन्द्वोंसे रहित होनेसे वह सुखपूर्वक बन्धनसे मुक्त हो जाता है । सभी द्वन्द्व प्रकृतिमें है । द्वन्द्व-रहित कब होता है ? जब वह अपने लिये किंचिन्मात्र भी कर्म नहीं करता ।

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्‌से अपनापन’ पुस्तकसे