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 (गत ब्लॉगसे
  आगेका)
							 स्वाँगके
  अनुसार खेलनेके
  लिये एक पुस्तक
  होती है, पुस्तकोंसे यह
  सिखाया जाता है
  कि इतने शब्द आप
  बोलें, इतने वे बोलें
  । वैसे ही हमारी
  पुस्तकोंमें
  लिखा है कि गृहस्थको
  यह करना चाहिये, पुरुषको ऐसा करना
  चाहिये, स्त्रीको ऐसा
  करना चाहिये, पुत्रको ऐसा करना
  चाहिये । और यह
  सब स्वाँग करना
  है केवल जनताकी
  प्रसन्नताके
  लिये । सब लोग कहें‒‘गृहस्थाश्रम
  बड़ा उपयोगी है
  । वाह, वाह, वाह’,‒इस
  प्रकार ठीक तरहसे
  उसे करना है, पर वाह-वाह लेनेकी
  भावनासे नहीं
  करना है । केवल
  अपनी आसक्ति मिटानेके
  लिये, स्वाँगके
  अनुसार प्रभुकी
  आज्ञाका पालन
  करनेके लिये; किंतु इसे
  सच्चा न माने ।
  इसका नाम कर्मयोग
  है ।
							 इस तरहसे किया
  जाय तो स्वत: आसक्ति
  मिटती है और स्वाभाविक
  ही राग मिटता है
  । इसीलिये कहा
  गया है‒‘धर्म ते बिरति’ धर्मका अनुष्ठान
  करनेसे वैराग्य
  होता ही है । धर्मको
  छोड़कर आसक्तिसे
  विषयोंका सेवन
  करेंगे तो विषय-सेवनसे
  कभी वैराग्य हो
  सकता ही नहीं, सम्भव ही नहीं
  । अत: उद्देश्य
  वैराग्यका हो
  और नियम भी वही
  रहे । स्वाँगके
  अनुसार कार्य
  बढ़िया-से-बढ़िया
  करना है, पर मानना है उसे
  स्वाँग । स्वाँगमें
  कमी आ जाय तो गड़बड़ी
  और स्वाँगको सच्चा
  माने तो
  गड़बड़ी । इसलिये
  पालन करनेमें
  कमी आवे नहीं और
  और सच्चा माने
  नहीं । इससे क्या
  होगा ? जैसे
  स्वाँग पहनकर
  पैसे कमाये जायँगे, वे भी जायँगे आपके
  घरमें और स्वाँगरहित
  हो आप काम करेंगे
  वे पैसे भी जायँगे
  आपके घरमें । ये
  दोनों पैसे ही
  आपके घरमें जायँगे
  । वैसे ही आप एकान्तमें
  बैठकर भजन-ध्यान
  कर रहे हैं तो अब
  स्वाँग नहीं, अब तो अपने भगवान्की
  उपासना कर रहे
  हैं और गृहस्थ
  बनकर काम कर रहे
  हैं तो यह संसारमें
  स्वाँग खेल रहे
  हैं । पर दोनोंका
  मतलब भजनसे होगा
  । इससे भगवान्के
  यहाँ ही दोनोंकी
  भर्ती होगी और
  भजन अखण्ड होगा
  । यदि भजन-ध्यान, कीर्तन-सत्संग
  तो हुआ भगवान्का
  भजन, उधर
  और व्यवहार‒-व्यापार
  हुआ हमारा काम
  इधर तो यह अखण्ड
  भजन नहीं होगा
  । सब  काम भगवान्का
  हो ।
							 तदर्थ कर्म
  कौन्तेय...............॥ (गीता
  ३ । १ ) 
							 मदर्थमपि
  कर्माणि कुर्वन्
  सिद्धिमवापस्यसि
  ॥ 
							                                                                                                        
  (गीता १२/१०) 
							 भगवान्के
  लिये कर्म करते
  हैं, प्रभुका ही
  काम करते हैं तो
  भजन होगा सभी ओर
  तथा जहाँ काम छूटेगा, भगवान्में
  मन लगेगा । जैसे रुपयोंके
  लिये व्यापार
  करता है तो जहा
  दूकान बंद किया
  कि चट रुपयोंका
  चिन्तन होता है, रुपयोंका विचार
  होता है, रुपयोंकी गिनती
  होती है । दूकान
  बंद हो जाती है, बाजार बंद हो जाता
  है, फिर भी दीपक
  जलाकर बैठे हैं
  । क्या करते है
  ? रोकड़ जोड़ते
  है । अब रोकड़ क्यों
  जोड़ते हो ? तो कहता है--व्यापार
  किसलिये किया
  था ? जिसके लिये
  किया था उसीमें
  वृत्ति लगती है
  । इसी प्रकार गृहस्थका
  काम किसलिये किया
  ? प्रभु-प्राप्तिके
  लिये । तो जहाँ
  काम छूटा कि मन
  प्रभुमें लग जायगा, चट लग जायगा ।
  व्यापार-कार्य
  आरम्भ करो तो रुपये
  कैसे पैदा हों‒यह
  ध्यान रहेगा, चाहे रुपयोंकी
  याद रहे या न रहे, पर रुपयोंके लिये
  काम है । अत: रुपयोंकी
  अखण्ड स्मृति, रुपयोंका ध्येय
  अखण्ड रहेगा ।
  वैसे ही यदि प्रभुके लिये
  ही भजन-ध्यान है
  और प्रभुके लिये
  ही गृहस्थाश्रमका
  काम है तो सब कार्योंमें
  अखण्डपना है ।
  जो यह अखण्डपना
  पकड़नेवाला है
  वह ‘साधक’ होता है, अखण्डपना
  रखना ‘साधन’ होता है और
  उससे जो अखण्डकी
  प्राप्ति है वह  ‘साध्य’ होती है । फिर
  आपसे-आप ये सब हो
  जायँगे ।
							 इस प्रकार
  ‘हम भगवान्के
  है’ यह कैसे समझें
  और ‘अखण्ड भजन कैसे
  हो’‒इन दोनों
  प्रश्रोंका उत्तर
  हो गया !
							                                                                  नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!
							 ‒
  ‘एकै साधे
  सब सधै’
  पुस्तकसे
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