(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
ज्ञानीका
तो ज्ञानमें कमी
रहनेसे पतन हो
सकता है, पर भक्तका पतन
नही हो सकता‒‘न मे भक्त: प्रणश्यति’
(गीता
९।३१) ।
न वासुदेवभक्तानामशुभं
विद्यते क्वचित्
।
(महा॰ अनु॰१४९।१३१)
‘भगवान्के
भक्तोंका कहीं
कभी भी अशुभ नहीं
होता ।’
सीम
कि चाँपि सकइ कोउ
तासू ।
बड़
रखवार रमापति
जासू ॥
(मानस, बाल॰१२६।४)
इसलिये
भगवान् गीतामें
कहते हैं‒
दैवी
ह्येषा गुणमयी
मम माया दुरत्यया
।
मामेव
ये प्रपद्यन्ते
मायामेता तरन्ति
ते ॥
(७।१४)
‘मेरी
यह गुणमयी दैवी
माया बड़ी दुरत्यय
है अर्थात् इससे
पार पाना बड़ा कठिन
है । परन्तु जो
केवल मेरी ही शरण
होते हैं;
वे इस मायाको
तर जाते हैं ।’
तेषामहं
समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्
।
भवामि
नचिरात्पार्थ
मय्यावेशितचेतसाम्
॥
(१२।७)
‘हे
पार्थ ! मेरेमें
आविष्ट चित्तवाले
उन भक्तोंका मैं
मृत्युरूप संसार-समुद्रसे
शीघ्र ही उद्धार
करनेवाला बन जाता
हूँ ।’
मच्चित्त:
सर्वदुर्गाणि
मत्प्रसादात्तरिष्यसि
। (१८।५८)
‘मेरेमें
चित्तवाला होकर
तू मेरी कृपासे
सम्पूर्ण विघ्नोंको
तर जायगा ।’
ब्रह्मादि
देवता भगवान्से
कहते हैं‒
येऽन्येऽरविन्दाक्ष
विमुक्तमानिन-
स्त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धय:
।
आरुह्य कृच्छ्रेण
परं पदं ततः
पतन्त्यधोऽनादृतयुष्मदङ्घ्रयः
॥
(श्रीमद्भा॰१०।२।३२)
‘हे
कमलनयन ! जो लोग
आपके चरणोंकी
शरण नहीं लेते
और आपकी भक्तिसे
रहित होनेके कारण
जिनकी बुद्धि
भी शुद्ध नहीं
है, वे अपनेको
मुक्त तो मानते
हैं, पर वास्तवमें
वे बद्ध ही हैं
। वे यदि कष्टपूर्वक
साधन करके ऊँचे-से-ऊँचे
पदपर भी पहुँच
जायँ तो भी वहाँसे
नीचे गिर जाते
हैं ।’
तथा न ते
माधव तावका: क्वचिद्
भ्रश्यन्ति
मार्गात्त्वयि
बद्धसौहृदाः
।
त्वयाभिगुप्ता
विचरन्ति निर्भया
विनायकानी कपमूर्धसु
प्रभो ॥
(श्रीमद्भा॰ १०।२।३३)
‘परन्तु
भगवन् ! जो आपके
भक्त हैं,
जिन्होंने
आपके चरणोंमें
अपनी सच्ची प्रीति
जोड़ रखी है, वे कभी उन ज्ञानाभिमानियोंकी
तरह अपने साधनसे
गिरते नहीं । प्रभो
! वे बड़े-बड़े विघ्न
डालनेवाली सेनाके
सरदारोंके सिरपर
पैर रखकर निर्भय
होकर विचरते हैं,
कोई भी विघ्र
उनके मार्गमें
रुकावट नहीं डाल
सकता ।’
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘जित
देखूँ तित तू’
पुस्तकसे
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