(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
श्रीरामचरितमानसमें
श्रीगोस्वामीजी
महाराज कहते
हैं–
सुर नर
मुनि सब कै यह
रीती ।
स्वारथ
लागि करहिं
सब प्रीती ॥
(किष्किन्धा॰ ११/१)
स्वारथ
मीत सकल जग
माहीं ।
सपनेहुँ
प्रभु
परमारथ
नाहीं
॥
हेतु
रहित जग जुग
उपकारी ।
तुम्ह
तुम्हार
सेवक
असुरारी ॥
(उत्तर॰ ४६/३)
‘बिना
स्वार्थके
हित करनेवाले
दो ही हैं–एक आप और एक
आपके भक्त ।’ अत: बिना
स्वार्थके
हित करनेकी
भावनासे
युक्त जीव
भगवान्की
जातिके हो
जाते हैं ।
तत्त्वतः
हैं तो सभी उन्हींकी
जातिके,
परन्तु
स्वार्थवश
जड
पदार्थोंका
आश्रय लेनेसे
जीव
निम्नकोटिका
हो गया ।
सन्तोंने
कहा है–
चाह
चूहड़ी
रामदास
सब नीचनमें
नीच ।
तू तो
केवल ब्रह्म
था, चाह न
होती बीच ॥
चाहसे ही
जीव नीचा बन
गया है । किसी
कविकी उक्ति
है–‘है
श्रेष्ठसे
भी श्रेष्ठ
तू, पर चाह
करके भ्रष्ट
है ।’ अत:
हम सबको
चाहिये कि
चाहका त्याग
करें ।
व्यापारियोंकी
लाभकी ओर ही
प्रवृति
होती है हानिकी
ओर नहीं । यदि
नाशवान्
वस्तु अपने
लिये लोगे तो
उस वस्तुका
नाश तो होगा
ही, भोगनेसे
तुम्हारा भी
पतन होगा ।
उसीको यदि दूसरोंकी
सेवामें लगा
दोगे तो वह
वस्तु
सार्थक हो
जायगी एवं
तुम्हारा भी
कल्याण हो
जायगा । संसारके
सभी पदार्थ
तुमसे
वियुक्त
होनेवाले हैं
। अन्तमें
उनसे
तुम्हारा
वियोग होगा
ही, यह
निश्चित है ।
अत: उनको
दूसरोंकी
सेवामें लगा
दिया जाय तो
मरणधर्मा
वस्तुओंसे
अमरताकी प्राप्ति
हो जायगी–‘मर्त्येनाप्नोति
मामृतम् ॥’ (श्रीमद्भा॰११/२९/२२) वस्तुओंका
बाहरी त्याग
ही आवश्यक
नहीं है, उनसे
अपनी ममता और
आसक्ति हटानी
चाहिये, दूसरोंके
हितमें
लगानेका भाव
होना चाहिये
। भावसे
कल्याण होता
है, वस्तु
चाहे आपके
पासमें ही
क्यों न पड़ी
रहे । इसके विपरीत,
यदि
हम अपनी
सम्पत्ति
पूरी-की-पूरी
दूसरोंके काममें
लगा दें,
परंतु
हमारे अंदर
निष्कामभाव
नहीं है तो
कल्याण नहीं
होगा । जैसे
मरनेवाला
प्राणी अपनी
मानी हुई सभी
वस्तुओंको
छोड़कर जाता
ही है, एक धागा
भी अपने साथ
नहीं ले जाता,
फिर
भी उसका
कल्याण तो
नहीं होता ।
अब प्रश्र होता
है–भाव क्या
है ? भावका
तात्पर्य यह
है कि जिसका
अवश्य वियोग
होनेवाला है
ऐसी वस्तुको
अपनी न माने । हमें
सोचना यही
चाहिये–‘संसार
परमात्माका
है, यहाँकी
सभी वस्तुएँ
उन्हींकी
हैं । मेरी
कही जानेवाली
वस्तुएँ भी
उन्हींकी
हैं । अत: इन वस्तुओंके
द्वारा मैं
कैसे सबका
हित कर दूँ–सबका भला
कर दूँ । मेरी
कही
जानेवाली
वस्तुएँ‒धन-सम्पत्ति, पद-अधिकार
आदि सब-की-सब
कैसे
दूसरोंकी
सेवामें लग
जायँ ।’ जैसे
लोभी आदमीके
मनमें लोभ
बना रहता है
कि कैसे और धन
मिले, वैसे ही मनुष्यमें
यह लोभ
जाग्रत् हो
जाना चाहिये
कि उसकी कही
जानेवाली
वस्तुएँ
कैसे सबकी
सेवामें लग
जायँ । ऐसा
भाव होनेपर
भी सब-की-सब
वस्तुएँ हम
दूसरोंकी
सेवामें लगा
नहीं
पायेंगे; क्योंकि
उनका अभाव
नहीं होगा, उनमें कमी
नहीं आयेगी ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒
‘सर्वोच्च
पदकी
प्राप्तिका
साधन’
पुस्तकसे
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