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 (गत
  ब्लॉगसे
  आगेका)
							 धन-सम्पत्ति
  आदि सब
  पदार्थ साथ
  तो चलेंगे
  नहीं, काममें
  ले लो इन्हें
  ।  जैसे कोई
  सड़कके ताला
  लगाना चाहे
  भी तो ताला लगानेसे
  क्या लाभ ?
  सड़क
  तो
  आने-जानेके लिये
  है; उसका
  उपयोग करना
  चाहिये । इसी
  प्रकार ये
  सांसारिक
  पदार्थ भी
  आने-जानेवाले
  हैं । इन्हें
  अपने भी
  काममें लो
  तथा औरोंको
  भी इनका
  उपयोग करने
  दो । परंतु हमारा
  उद्देश्य
  संग्रह करना
  और भोग
  भोगनामात्र
  रह जानेसे
  हमारे अंदर
  आसुरी
  सम्पत्ति आ जाती
  है । आसुरी
  सम्पदावाले
  कहते हैं–‘बस, भोग
  भोगना ही सब
  कुछ है ।’ –‘कामोपभोगपरमा
  एतावदिति
  निश्चिता: ॥’ (गीता
  १६/११), समझदार
  लोग कहते हैं–‘भैया !
  विचार करो,
  इनके
  साथ हमारा
  सम्बन्ध
  कितने दिन
  रहेगा ?’ बढ़िया-से-बढ़िया
  कपड़ा पहना ।
  जरा-सी
  सिकुड़न भी
  उसमें पड़ जाय
  तो सहन नहीं
  होती ।
  भोगोंमें हम
  कितने
  रचे-पचे हैं
  कि कपड़ोंमें
  सल पड़ जाय–ऐसी
  तुच्छ बात भी
  बर्दाश्त
  नहीं है ।
  बढ़िया कपड़ा
  पहननेका
  विरोध नहीं,
  समयानुसार
  कपड़े पहनना
  बुरा भी नहीं
  है, पर वैसे
  कपड़े पहनना
  ही सब कुछ
  नहीं है । आप
  कितनी ही
  सावधानी
  क्यों न रखें,
  कपड़े
  पुराने और
  मैले होंगे
  ही । भोगोंके
  भोगनेका
  ज्ञान तो
  पशु-पक्षियोंमें
  भी है; मनुष्यको
  तो भगवान्ने
  विवेक-शक्ति
  दी है, सार-असारको
  जाननेकी
  सामर्थ्य दी
  है । उस शक्तिको
  अपने
  सुख-भोगमें
  एवं
  दूसरोंके
  अहितमें न
  लगाये ।
  ऋषि-मुनियोंने
  सबके
  कल्याणमें
  अपनी बुद्धि
  लगायी, अतएव वे
  महान् हो गये
  ।
  युद्धादिमें
  मायिक विज्ञानका,
  धोखा-धड़ी
  आदिका
  प्रयोग
  राक्षसोंमें-असुरोंमें
  ही देखा जाता
  था । इन सबका
  उपयोग
  ऋषि-मुनियोंने
  नहीं किया ।
  धन-सम्पत्तिका
  संग्रह भी
  यक्ष-राक्षस
  ही करते थे ।
  इसका यह अर्थ
  भी नहीं है कि
  कोई
  धन-संग्रह न
  करे, धन-सम्पत्ति
  न रखे ।
  कहनेका
  तात्पर्य यह
  है कि इनका
  सदुपयोग करो
  । धन-सम्पत्ति, विद्या, बल, बुद्धि
  आदिका
  महत्त्व
  नहीं है, उनके
  उपयोगका
  महत्त्व है । 
							 नीतिका
  एक श्लोक है–
							                  विद्या
  विवादाय धन
  मदाय शक्ति:
  परेषां परिपीडनाय
  ।                       खलस्य
  साधोर्विपरीतमेतज्ज्ञानाय  दानाय  च
  रक्षणाय  ॥
							                    ‘खलकी
  विद्या
  विवादके
  लिये,
  धन
  घमण्ड पैदा
  करनेके लिये
  तथा शक्ति
  दूसरोंके
  उत्पीड़नके
  लिये होती है; इसके विपरीत, साधुके पास
  रहकर विद्या
  उसे ज्ञानकी
  प्राप्ति
  कराती है, धन उसका
  दानमें व्यय
  होता है और
  शक्ति उसकी
  औरोंकी
  रक्षाके
  काममें आती
  है और उससे
  जीवका
  कल्याण हो
  जाता है ।’
							       (शेष
  आगेके
  ब्लॉगमें)
							 ‒
  ‘सर्वोच्च
  पदकी
  प्राप्तिका
  साधन’
  पुस्तकसे
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