।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्ल द्वादशी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
श्रीतुलसी-विवाह
संयोगमें वियोगका दर्शन
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
जो अवश्यम्भावी है अर्थात् जिसका होना निश्चित है उस वियोगको पहले ही स्वीकार कर लें, तो फिर अन्तमें रोना नहीं पड़ेगा‒
                               मन पछितैहै अवसर बीते ।
                               अंतहुँ तोहिं तजैंगे पामर ! तू न तजै अब ही ते ॥
                                                                                   (विनय-पत्रिका १९८)
 
वर्तमानमें ही वियोगको स्वीकार कर लेना योग’ है‒‘तं विद्याद् दुःखसयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।’ (गीता ६।२३) दुःखरूप संसारके संयोगके वियोगका नाम योग है ।’ संयोगमें विषमता रहती है । संयोगके बिना विषमता नहीं होती । संयोगका त्याग करनेसे विषमता मिट जाती है और योग प्राप्त हो जाता है‒‘समत्वं योग उच्यते’ (गीता २।४८) । फिर न कोई दुःख रहता है, न सन्ताप रहता है, न जलन या हलचल ही रहती है ।
 
जबतक संयोग है, तबतक प्रेमसे रहो, दूसरोंकी सेवा करो‒सबसे हिलमिल चालिये, नदी नाव संजोग ॥’ जितनी बन सके, सेवा कर दो । बदलेमें किसी वस्तुकी आशा मत रखो । जिनसे वियोग ही होगा, उसकी आशा रखे ही क्यों ? माता, पिता, स्त्री, पुत्र, भाई, बन्धु आदि जितने भी हैं, उन सबसे एक दिन वियोग होगा । उनसे अच्छे-से-अच्छा व्यवहार कर दें । मनकी यह गलत भावना निकाल दें कि वे बने रहेंगे । जो मिला हुआ है वह सब जा रहा है, फिर और मिलनेकी आशा क्यों रखें ? और मिलेगा कि नहीं मिलेगा‒इसका पूरा पता नहीं, पर मिल जाय तो रहेगा नहीं‒इसका पूरा पता है । फिर उसके मिलनेकी इच्छा करके व्यर्थ अपनी बेइज्जती क्यों करें ?
 
राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि भी रहते नहीं अपितु जा ही रहे हैं । ये सब विनाशी हैं और जीव अविनाशी है‒ ईस्वर अंस जीव अबिनासी’ विनाशीका संग छोड़ना मुक्ति है और अविनाशीमें स्थित होना भक्ति है । विनाशीका वियोग हो ही रहा है । इस वियोगको अभी ही स्वीकार कर लें । फिर मुक्ति और भक्ति‒ दोनों स्वतसिद्ध हैं ।
 
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
 
‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे
भगवान्‌को पुकारनेसे जो काम होता है, वह विवेक-विचारसे नहीं होता ।
भगवान्‌के न मिलनेका दुःख हजारों सांसारिक सुखोंसे बढ़कर है ।
जैसे वैद्य जो दवा दे, उसीमें हमारा हित है, ऐसे ही भगवान्‌ जो विधान करें, उसीमें हमारा परम हित है ।
जैसे गायके शरीरमें रहनेवाला घी काम नहीं आता, ऐसे ही सीख हुआ ज्ञान काम नहीं आता ।
‘मैं ज्ञानी हूँ’ और ‘मैं अज्ञानी हूँ’‒ये दोनों ही मान्यताएँ अज्ञानियोंकी हैं ।
‒ ‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे