।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण सप्तमी, वि.सं.–२०७०, रविवार
संयोग, वियोग और योग
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
यह नित्ययोग सबको निरन्तर स्वत: प्राप्त है, पर जिज्ञासाके बिना साधक इसको पकड़ता नहीं । कारण कि जिज्ञासामें ही इसको पकड़नेकी शक्ति है । जैसे, भोजन बढ़िया हो, पर भूखके बिना उसको पा नहीं सकते और पा लें तो उसका रस नहीं बनता, जिससे वह शक्ति नहीं देता । जबतक जिज्ञासा जाग्रत् नहीं होती, तभीतक तत्त्वप्राप्तिमें देरी है । जिज्ञासा जाग्रत् होनेपर कुछ देरी नहीं है । किसी भी तरहका दूसरा कोई आग्रह न हो तो जिज्ञासा जाग्रत् होनेपर तत्काल नित्ययोगकी प्राप्ति हो जायगी । अगर साधक अपने सम्प्रदायका, मतका, द्वैतका, अद्वैतका, भक्तिका, ज्ञानका, योगका कोई आग्रह रखेगा तो उसको जल्दी तत्त्वप्राप्ति नहीं होगी । सन्तोंने कहा है‒
मतवादी जानै नहीं, ततवादी की बात ।
सूरज ऊगा उल्लुवा, गिनै अँधेरी रात ॥
हरिया तत्त विचारियै, क्या मत सेती काम ।
तत्त बसाया अमरपुर, मतका जमपुर धाम ॥
 
प्रश्न‒नित्ययोगका अनुभव करनेका सुगम उपाय क्या है ?
 
उत्तर‒संसारमें हम अनुकूलता-प्रतिकूलता, सुख-दुःख, भाव-अभाव, आदर-निरादर, निन्दा-स्तुति आदि जितने भी द्वन्द्व देखते हैं, उन सबका संयोग और वियोग होता है । इस संयोग और वियोग-दोनोंपर विचार करें तो संयोग अनित्य है और वियोग नित्य है । अगर संसारके नित्य वियोगको स्वीकार कर लें तो परमात्माके साथ नित्ययोगका अनुभव हो जायगा ।
 
संसारकी किसी भी वस्तु, व्यक्ति आदिसे हमारा संयोग (मिलन) हुआ है तो अन्तमें उसका वियोग अवश्य होगा‒
सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रया: ।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम् ॥
                                                      (वाल्मीकि२।१०५।१६; महाआश्व ४४।११)
 
समस्त संग्रहोंका अन्त विनाश है, लौकिक उन्नतियोंका अन्त पतन है, संयोगोंका अन्त वियोग है और जीवनका अन्त मरण है ।’
 
संसारका वियोग नित्य है‒इसका अनुभव मनुष्य-मात्रको है । यह कोई नयी बात नहीं है । पहले भी वियोग था, बादमें भी वियोग रहेगा और संयोगके समय भी निरन्तर वियोग हो रहा है; अत: वियोग नित्य है । नित्यको स्वीकार कर लें तो अनित्यका त्याग हो जायगा । अनित्यका त्याग करना ही साधकका मुख्य कार्य है । वास्तवमें वियोगका ही महत्त्व है, संयोगका नहीं । साधकसे गलती यह होती है कि वह संयोगको सच्चा मानकर उसको महत्व देता है, पर वियोगको महत्त्व नहीं देता । वह वियोगमें संयोगकी लालसा रखता है; जैसे‒धन नहीं हो तो धनकी लालसा रखता है । अगर वह संयोगके साथ सम्बन्ध न रखकर वियोगके साथ सम्बन्ध रखे, वियोगको ही महत्व दे तो निहाल हो जाय !
 
     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे