।। श्रीहरिः ।।

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आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
मूर्ति-पूजा
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒कुछ लोग मन्दिरमें अथवा मन्दिरके पास बैठकर मांस, मदिरा आदि निषिद्ध पदार्थोंका सेवन करते हैं, फिर भी भगवान् उनको क्यों नहीं रोकते ?
 
उत्तर‒माँ-बापके सामने बच्चे उद्दण्डता करते हैं तो माँ-बाप उनको दण्ड नहीं देते; क्योंकि वे यही समझते हैं कि अपने ही बच्चे हैं, अनजान हैं, समझते नहीं हैं । इसी तरह भगवान् भी यही समझते हैं कि ये अपने ही अनजान बच्चे हैं; अत: भगवान्‌की दृष्टि उनके आचरणोंकी तरफ जाती ही नहीं । परन्तु जो लोग मन्दिरमें निषिद्ध पदार्थोंका सेवन करते हैं, निषिद्ध आचरण करते हैं, उनको इस अपराधका दण्ड अवश्य ही भोगना पड़ेगा ।
 
प्रश्न‒पहले कबीरजी आदि कुछ सन्तोंने मूर्तिपूजाका खण्डन क्यों किया ?
 
उत्तर‒जिस समय जैसी आवश्यकता होती है, उस समय सन्त-महापुरुष प्रकट होकर वैसा ही कार्य करते हैं । जैसे, पहले जब शैवों और वैष्णवोंमें बहुत झगड़ा होने लगा, तब तुलसीदासजी महाराजने रामचरितमानसकी रचना की, जिससे दोनोंका झगड़ा मिट गया । गीतापर बहुत-सी टीकाएँ लिखी गयी हैं; क्योंकि समय-समयपर जैसी आवश्यकता पड़ी, महापुरुषोंके हृदयमें वैसी ही प्रेरणा हुई और उन्होंने गीतापर वैसी ही टीका लिखी । जिस समय बौद्धमत बहुत बढ़ गया था, उस समय शंकराचार्यजीने प्रकट होकर सनातन-धर्मका प्रचार किया । ऐसे ही जब मुसलमानोंका राज्य था, तब वे मन्दिरोंको तोड़ते थे और मूर्तियोंको खण्डित करते थे । अत: उस समय कबीरजी आदि सन्तोंने कहा कि हमें मन्दिरोंकी, मूर्तिपूजाकी जरूरत नहीं है; क्योंकि हमारे परमात्मा केवल मन्दिरमें या मूर्तिमें ही नहीं हैं, प्रत्युत सब जगह व्यापक हैं वास्तवमें उन सन्तोंका मूर्तिपूजाका खण्डन करनेमें तात्पर्य नहीं था, प्रत्युत लोगोंको किसी तरह परमात्मामें लगानेमें ही तात्पर्य था ।
 
प्रश्न‒अभी तो वैसा समय नहीं है, मुसलमान मन्दिरोंको, मूर्तियोंको नहीं तोड़ रहे हैं, फिर भी उन सन्तोंके सम्प्रदायमें चलनेवाले मूर्तिपूजाका, साकार भगवान्‌का खण्डन क्यों करते हैं ?
 
उत्तर‒किसीका खण्डन करना अपने मतका आग्रह है; क्योंकि दूसरोंके मतका खण्डन करनेवाले अपने मतका प्रचार करना चाहते हैं, अपनी प्रतिष्ठा चाहते हैं । अभी जो मन्दिरोंका, मूर्तिपूजाका, दूसरोंके मतका खण्डन करते हैं, वे मतवादी वस्तुत: परमात्मतत्त्वको नहीं चाहते, अपना उद्धार नहीं चाहते, प्रत्युत अपनी व्यक्तिगत पूजा चाहते हैं, अपनी टोली बनाना चाहते हैं, अपने सम्प्रदायका प्रचार चाहते हैं । ऐसे मतवादियोंको परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती । जो अपने मतका आग्रह रखते हैं, वे मतवाले होते हैं और मतवालोंकी बात मान्य (माननेयोग्य) नहीं होती‒
बातुल भूत    बिबस मतवारे ।
ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे ॥
                                                                      (मानस १।११५।७)
 
ऐसे मतवाले लोग तत्त्वको नहीं जान सकते‒
हरीया रत्ता तत्तका,       मतका रत्ता नांहि ।
मत का रत्ता से फिरै, तांह सच पाया नाहि ॥
हरीया तत्त विचारियैक्या मत सेती काम ।
                        तत्त बसाया अमरपुर, मत का जमपुर धाम ॥
 
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मूर्ति-पूजा और नाम-जपकी महिमा’ पुस्तकसे