(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवत्कृपाकी दृष्टिसे विचार करें तो दुःखमें भगवान्की कृपा अधिक होती है । जैसे, बच्चे खेल रहे हों और किसी माँके मनमें भाव आ जाय तो वह सब बच्चोंको लड्डू दे सकती है । परन्तु बच्चे शरारत करें तो वह सबको थप्पड़ नहीं लगा सकती, प्रत्युत अपने बच्चेको ही थप्पड़ लगा सकती है । तात्पर्य है कि थप्पड़ लगानेमें जितना अपनापन है, लड्डू देनेमें उतना अपनापन नहीं है । इसी तरह दुःख आनेपर ऐसा सोचें कि भगवान्का मेरेपर अपनापन है । अपनापन जितना सुखदायी है उतना थप्पड़ (दुःख) दुःखदायी नहीं है । यदि अपनेपनको देखें तो दुःख भी आनन्द देनेवाला हो जाता है ! अत: दुःख आनेपर आनन्द मनाना चाहिये कि भगवान्ने बड़ी कृपा कर दी !
विवेककी दृष्टिसे विचार करें तो एक सीधी-सरल बात है कि सुखमें भी हम रहते हैं और दुःखमें भी हम रहते हैं,अत: सुख-दुःखको न देखकर अपने स्वरूपको देखें कि हम स्वयं तो वही हैं । सुख-दुःख आनेपर हम तो एक ही रहे,हमारा क्या बिगड़ा न ? जो सुखके समय हम थे, वे ही दुःखके समय हम हैं और जो दुःखके समय हम थे, वे ही सुखके समय हम हैं । हमारा स्वरूप सुख और दुःख दोनोंमें सम है‒‘समदुःखसुखः स्वस्थ:’ (गीता १४ । २४) । सुख और दुःख तो आने-जानेवाले हैं, पर स्वरूप कहीं आने-जानेवाला नहीं है, प्रत्युत ज्यों-का-त्यों स्थित है । न सुख रहता है और न दुःख रहता है पर हम स्वरूपसे वैसे-के-वैसे ही रहते हैं;फिर आने-जानेवालोंको लेकर हम सुखी-दुःखी क्यों हों ?यदि हमारेपर सुख-दुःखका असर पड़ गया, हम सुखी-दुःखी हो गये, आगन्तुक विकारोंमें बँध गये तो फिर हमारी स्थिति स्वरूपमें नहीं रही । हम स्वस्थ नहीं रहे, प्रत्युत अस्वस्थ हो गये ! जैसे, हम दरवाजेपर खड़े हैं । हमारे सामने रास्तेपर मोटरें आ गयीं तो हम प्रसन्न हो गये और मोटरें नहीं आयीं तो दुःखी हो गये तो यह कितनी मूर्खताकी बात है ? मोटर आ गयी तो हमें क्या मिल गया ? मोटर नहीं आयी तो हमारा क्या नुकसान हो गया ? ऐसे ही घरमें बेटा आ गया तो क्या हो गया ? और बेटा मर गया तो क्या हो गया ? सब आने-जानेवाले हैं । अत: मनुष्यमात्रमें यह विवेक जाग्रत् रहना चाहिये कि सुख और दुःख आने-जानेवाले हैं और हम स्वरूपसे रहनेवाले हैं । रहनेवाला आने-जानेवालोंसे सुखी-दुःखी क्यों हो ? इसलिये चाहे पाप-पुण्यकी दृष्टिसे देखें, चाहे भगवत्कृपाकी दृष्टिसे देखें और चाहे विवेककी दृष्टिसे देखें, हमें सुखी-दुःखी नहीं होना है । सुखी-दुःखी न होनेका उद्देश्य बननेके बाद अगर सुख-दुःखका असर पड़ भी जाय तो साधकको डरना नहीं चाहिये और अपनी हार स्वीकार नहीं करनी चाहिये । असर पड़ गया तो पड़ गया, उसकी उपेक्षा कर देनी चाहिये । पूर्वसंस्कारसे सुख-दुःख होता है तो वह आता नहीं है, प्रत्युत मिटता है । साधकको दृढ़ विचार कर लेना चाहिये कि सुखका असर पड़ गया तो पड़ गया, पर मेरेको सुख नहीं भोगना है । दुःखका असर पड़ गया तो पड़ गया, पर मेरेको दुःख नहीं भोगना है । मुझे भोगी नहीं बनना है, प्रत्युत योगी बनना है । सुख-दुःखमें सुखी-दुःखी होना भोग है और सुखी-दुःखी न होकर सम रहना योग है‒‘समत्वं योग उच्यते’ (गीता २ । ४८) । अगर साधकका यह दृढ़ विचार हो जाय कि संसारके संयोग-वियोगको लेकर मुझे सुखी-दुःखी नहीं होना है तो फिर ऐसा ही होने लग जायगा ! कारण कि वास्तविक तत्त्व सुख और दुःख दोनोंसे रहित है । वहाँ न सुख है, न दुःख, प्रत्युत एक स्वतःसिद्ध स्वाभाविक आनन्द है । इस आनन्दको ही गीताने ‘अक्षय सुख’ नामसे कहा है‒
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्रुते ॥
(१५ । २१)
‘बाह्यस्पर्श (नाशवान् पदार्थ) में आसक्तिरहित अन्तःकरणवाला साधक आत्मा (अन्तःकरण) में जो सात्त्विक सुख है, उसको प्राप्त होता है । फिर वह ब्रह्ममें अभिन्नभावसे स्थित मनुष्य अक्षय सुखका अनुभव करता है ।’
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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