(गत ब्लॉगसे आगेका)
हम बद्रीनारायण जाते हैं तो रास्तेमें बढिया-से-बढिया जगह आ जाय तो भी वहाँ ज्यादा नहीं टिकते और घटिया-से-घटिया जगह आ जाय तो भी जाना बन्द नहीं करते, हमारी चाल वैसी ही रहती है । खराब-से-खराब रास्ता आ जाय, चढ़ाई आ जाय, तेज धूप पड़ने लगे, पसीना आने लगे तो भी हम चलते रहते हैं और आगे बढ़िया रास्ता आ जाय, जंगलसे पुष्पोंकी सुगन्ध आने लगे, बादलोंकी छाया हो जाय, ठण्डी हवा चलने लगे तो भी हम चलते रहते हैं । ऐसा मनमें नहीं आता कि अच्छी जगह है, पुष्पोंकी सुगन्ध आ रही है; अतः यहीं आसन लगा लें । कारण कि यह हमारा उद्देश्य नहीं है । जगह अच्छी हो या गन्दी, ये सब तो मार्गकी बातें हैं; हमें तो बद्रीनारायण जाना है । ऐसे ही परिस्थिति अनुकूल हो या प्रतिकूल, ये तो मार्गकी बातें हैं;हमें तो भगवान्की प्राप्ति करनी है । कैसी ही परिस्थिति क्यों न आये, हमारे भजनमें कमी नहीं आनी चाहिये । अगर इस प्रकार हमारा उद्देश्य दृढ़ रहे तो उसकी सिद्धि भगवान्की कृपासे शीघ्र हो जायगी । सिद्धि करनेमें हमारेको जोर नहीं पड़ेगा । भगवान्ने अपनी ओरसे कृपा करनेमें कोई कमी नहीं रखी है । जैसे बछड़ा एक स्तनसे ही दूध पीता है, पर भगवान्ने गायको चार स्तन दिये हैं । ऐसे ही भगवान् चारों तरफसे हमारेपर कृपा कर रहे हैं ! हमें तो निमित्तमात्र बनना है । भगवान् अर्जुनसे कहते हैं‒
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥
(गीता ११ । ३३)
‘ये सभी मेरे द्वारा पहलेसे ही मारे हुए हैं । हे सव्यसाचिन् ! तुम निमित्तमात्र बन जाओ ।’
तथा‒
मया हतांस्तवं जहि मा व्यथिष्ठा-
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥
(गीता ११ । ३४)
‘मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीरोंको तुम मारो । तुम व्यथा मत करो और युद्ध करो । युद्धमें तुम निःसन्देह वैरियोंको जीतोगे ।’
अर्जुनके सामने युद्ध था, इसलिये भगवान् उनसे कहते हैं कि तुम निमित्तमात्र बनकर युद्ध करो, तुम्हारी विजय होगी । ऐसे ही हमारे सामने साधन है; अतः हम भी निमित्तमात्र बनकर साधन करें तो संसारपर हमारी विजय हो जायगी । संसारमें राग, आसक्ति, कामना न करें,सावधान रहें, यही निमित्तमात्र बनना है । भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि ये सभी शूरवीर मेरे द्वारा पहलेसे ही मारे हुए हैं,ऐसे ही ये राग आदि भी पहलेसे ही मारे हुए हैं, सत्तारहित हैं । इनको हमने ही सत्ता दी है । संसार नित्यनिवृत्त है‒‘नासतो विद्यते भावः’ और परमात्मा नित्यप्राप्त हैं‒‘नाभावो विद्यते सतः’ । नित्यनिवृत्तिकी ही निवृत्ति करनी है और नित्यप्राप्तकी ही प्राप्ति करनी है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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