(गत ब्लॉगसे आगेका)
मायाहस्तेऽर्पयित्वाभरणकृतिकृते मोहमूलोद्भवं मां
मात: कृष्णाभिधाने चिरसमयमुदासीनभावं गतासि ।
कारुण्यैकाधिवासे सकृदपि वदनं नेक्षसे त्वं मदीयं
तत्सर्वज्ञे न कर्तुं प्रभवति भवती किं नु मूलस्य शान्तिम् ॥
(प्रबोधसुधाकर २४४)
‘हे कृष्ण नामवाली माँ ! मोहरूपी मूल नक्षत्रमें उत्पन्न हुए मुझ पुत्रको भरण-पोषणके लिये मायाके हाथोंमें सौंपकर तू बहुत दिनोंसे मेरी ओरसे उदासीन हो गयी है । अरी एकमात्र करुणामयी मैया ! तू एक बार भी मेरे मुखकी ओर नहीं देखती ? हे सर्वज्ञे ! क्या तू उस मोहरूपी मूलकी शान्ति करनेमें समर्थ नहीं है ?’
ज्ञानी तो आरम्भसे ही अपनेको बड़ा (ब्रह्म) मानने लगता है, परन्तु भक्त अपनेको सदा छोटा (बालक) ही मानता है, कभी बड़ा मानता ही नहीं । इसलिये भगवान् कहते हैं‒
मोरे प्रौढ़ तनय सम ग्यानी ।
बालक सुत सम दास अमानी ॥
(मानस, अरण्य॰ ४३ । ४)
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज वृद्ध होनेपर भी अपनेको बालक ही मानते हैं और माँ सीताजीसे कहते हैं‒
कबहुँक अंब, अवसर पाइ ।
मेरिऔ सुधि द्याइबी, कछु करून-कथा चलाइ ॥ १ ॥
दीन, सब अँगहीन, छीन, मलीन, अघी अघाइ ।
नाम लै भरै उदर एक प्रभु-दासी-दास कहाइ ॥ २ ॥
बूझिहैं ‘सो है कौन’, कहिबी नाम दसा जनाइ ।
सुनत राम कृपालु के मेरी बिगरिऔ बनि जाइ ॥ ३ ॥
जानकी जगजननि जन की किये बचन सहाइ ।
तरै तुलसीदास भव तव नाथ-गुन-गन गाइ ॥ ४ ॥
बालकके मनमें अगर कोई बात आ जाय तो वह माँसे ही कहता है । गोस्वामीजीके मनमें बात आयी तो उन्होंने माँ (सीताजी) से कह दी कि रघुनाथजीके सामने यों ही मेरा नाम मत लेना । पहले भक्तोंकी कोई करुण-कथा चलाना और जब रघुनाथजी प्रेममें मस्त हो जायँ, गद्गद हो जायँ, द्रवित हो जायँ, तब मेरा नाम लेना, नहीं तो उनकी दृष्टि मेरे लक्षणोंकी तरफ चली जायगी ! मेरा नाम भी सीधे मत लेना । पहले कहना कि एक ऐसा भक्त है जो आपका नाम लेकर पेट भरता है और आपकी दासी तुलसीका दास कहलाता है । गोस्वामीजी माँको भी लोभ देते हैं कि मैया ! मेरा काम बन जायगा तो मैं आपके पति रघुनाथजीके गुण गाऊँगा । यह भक्तोंके भोलेपनकी भाषा है चालाकीकी भाषा नहीं । भक्तके लिये कहा गया है‒‘सरल सुभाव न मन कुटिलाई’ (मानस,उत्तर॰ ४६।१) ।
कपट गाँठ मन में नहीं, सबसों सरल सुभाव ।
‘नारायण’ ता भक्त की, लगी किनारे नाव ॥
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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