(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान् बोध इसलिये देते हैं कि यह मुक्त होकर,स्वाधीन होकर मेरेसे प्रेमका आदान-प्रदान करे । परन्तु जब मनुष्य उस बोधमें ही सन्तुष्ट होकर भगवान्को भूल जाता है,तब भगवान् कृपा करके उसको प्रेमका आस्वादन करानेके लिये उस बोधमें भी नीरसता पैदा कर देते हैं ! इसीलिये बोधवान् मनुष्यको अपनेमें कभी तो बड़ा आनन्द दीखता है और कभी नीरसता दीखती है, कभी तो पूर्णता दीखती है और कभी कमी दीखती है । तात्पर्य है कि साधक भले ही भगवान्को भूल जाय, पर भगवान् उसको कभी नहीं भूलते और उसको अपनी तरफ खींचनेके लिये चेत कराते रहते हैं ।
भगवान्का यह एक विलक्षण स्वभाव है कि वे कुछ भी देते हैं तो इस ढंगसे अपनेको छिपाकर देते हैं कि लेनेवालेको वह वस्तु अपनी ही मालूम देती है ! कारण कि संसारमें देनेवाला बड़ा और लेनेवाला छोटा माना जाता है । इसलिये भगवान् अपनेको छिपाकर देते हैं, जिससे अपनेमें बड़प्पन भी न आये और लेनेवालेमें छोटापन भी न आये ! अत: मिली हुई वस्तुको लेकर अपनेमें अभिमान नहीं होना चाहिये, प्रत्युत भगवान्के प्रति कृतज्ञबुद्धि होनी चाहिये ।जब लेनेवाला मिली हुई वस्तुको अपना न मानकर देनेवाले‒भगवान्को अपना मानता है, तब भगवान् उसके ऋणी हो जाते हैं और कहने लगते हैं‒‘मैं तो हूँ भगतनको दास भगत मेरे मुकुटमणि !’
भक्त अपने-आपको भगवान्के अर्पित कर देता है तो भगवान् भी अपने-आपको उसके अर्पित कर देते हैं । भक्त भगवान्को प्रेम-रस देता है और भगवान् भक्तको प्रेम-रस देते हैं‒‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता ४ । ११) । इस प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी लीलामें कौन भक्त है और कौन भगवान् है‒इसका पता नहीं लगता । मुक्ति (तत्वज्ञान) में तो अखण्ड रस है, पर इस प्रेममें अनन्त रस है । इस अनन्त रसकी प्राप्तिमें ही मानवजीवनकी पूर्णता है ।
३. भगवान् प्रेमके अधीन हैं
भगवत्प्रेममें कितना आनन्द है‒इसका कोई वर्णन कर ही नहीं सकता । उस प्रेममें जो आनन्द है, वह आनन्द मुक्तिमें, जन्म-मरणसे रहित होनेमें भी नहीं है । कारण कि मुक्त होनेपर, जन्म-मरणसे रहित होनेपर दुःखोंका नाश हो जाता है और मनुष्य सन्तुष्ट हो जाता है, कृतकृत्य, ज्ञात-ज्ञातव्य और प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाता है परन्तु प्रेम प्राप्त होनेपर मनुष्य सन्तुष्ट नहीं होता, प्रत्युत उसका आनन्द उत्तरोत्तर बढ़ता ही रहता है । वह प्रेम अविनाशी और चिन्मय है । उसकी प्राप्ति किसी क्रियासे, अभ्याससे अथवा विचारसे नहीं होती । विचारसे जड़ताका त्याग हो सकता है,अपने स्वरूपका बोध हो सकता है, पर प्रेम नहीं हो सकता । प्रेमकी प्राप्ति ‘मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं‒इस विश्वासकी गाढ़तासे होती है । दूसरे शब्दोंमें, संसारमें हमारा जो खिंचाव है वह भगवान्में हो जाय तो वह प्रेम प्राप्त हो जाता है । उस प्रेमको देनेवाले भी भगवान् ही हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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