।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल दशमी, वि.सं.–२०७१, बुधवार
प्रार्थना और शरणागति



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
रामचरितमानसमें आया है‒
मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन ।
                                                                      (उत्तर १२२ ख)

जो चेतन कहँ जड़ करइ जड़हि करइ चैतन्य ।
                                                                       (उत्तर १११ ख)

तृन ते कुलिस कुलिस तृन करई ।
                                                             (लंका ३५ । ४)
तात्पर्य है कि भगवान् असम्भवको सम्भव और सम्भवको असम्भव बनानेमें सर्वथा समर्थ हैं‒‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थ: ।’ उनमें किसी तरहकी असामर्थ्य नहीं है । वे सब तरहसे पूर्ण हैं । बलबुद्धिविद्या,योग्यता आदि किसी भी विषयमें उनमें किंचिन्मात्र भी कमी नहीं है । ऐसे सर्वथा परिपूर्णसर्वसमर्थ भगवान्‌के साथ हमारा सम्बन्ध हो जायगा तो उनकी सब शक्ति हमारेमें आ जायगी । जैसे बिजलीके तारके साथ सम्बन्ध होनेपर पंखा भी चलता हैअँगीठी भी जलती हैबर्फ भी जमती है,प्रकाश भी होता है । एक ही शक्तिसे अनेक परस्पर-विरुद्ध कार्य हो जाते हैं  । ऐसे ही संसारकी उत्पत्ति करनेमें, पालन करनेमें और संहार करनेमें एक ही शक्ति काम करती है । जब प्रार्थनाके द्वारा भक्त ऐसे सर्वसमर्थ भगवान्‌के सम्मुख हो जाता हैतब उसमें किसी तरहकी कमी कैसे रह सकती है ? कमी रहनेकी सम्भावना ही नहीं है । भगवान् कहते हैं‒
                           यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
                           स सर्वविद्भजति  मां    सर्वभावेन भारत ॥
                                                                   (गीता १५ । १९)
‘हे भारत ! इस प्रकार जो मोहरहित मनुष्य मुझे पुरुषोत्तम जान लेता हैवह सर्ववित् मनुष्य सब प्रकारसे मेरा ही भजन करता है ।’

जो भगवान्‌को पुरुषोत्तम जानता हैवही सर्ववित् (सर्वज्ञ) होता है । संसारकी बहुत बातें जाननेसे मनुष्य सर्ववित् नहीं होता । भगवान्‌की शक्ति अपारअसीम,अनन्तअगाध हैं‒ऐसा जिसका दृढ़ विश्वास हैवह सब प्रकारसे भगवान्‌का ही भजन करता है । उसकी दृष्टि भगवान्‌के सिवाय दूसरी तरफ जाती ही नहीं । भगवान्‌के सिवाय और किसीका कोई सहारा नहीं रहताऔर किसीका कोई मूल्य नहीं रहताऔर किसीसे कोई आशा नहीं रहती । वह सब तरफसे निराश हो जाता है । मैं अपने बलसे कर लूँगा‒यह बात उसके हृदयसे सदाके लिये उठ जाती है । ऐसी स्थितिमें असली शरणागति होती हैअसली प्रार्थना होती है । भगवान् कहते हैं‒
सर्वधर्मान्परित्यज्य     मामेकं    शरणं    व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
                                                                             (गीता १८ । ६६)
‘सम्पूण धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा । मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगातू चिन्ता मत कर ।’

अपने बलबुद्धिविद्या आदिका किञ्चिन्मात्र भी आश्रय या अभिमान न रखकर भगवान्‌की अनन्य शरण होना हमारा काम है और सम्पूर्ण पापोंसे सदाके लिये मुक्त करना भगवान्‌का काम है । कारण कि हम ही भगवान्‌से विमुख हुए हैंभगवान् हमारेसे कभी विमुख नहीं हुए । अगर हम अनन्यभावसे भगवान्‌के शरण हो जायँ तो फिर भगवान्‌की शक्तिसे बहुत जल्दी तथा सुगमतासे कल्याण हो जायगा ।इसलिये भगवान् आश्वासन देते हैं कि मेरी शरणमें आनेसे मैं सम्पूर्ण पापोंसेदुःखोंसेबन्धनोंसे मुक्त कर दूँगाफिर तुम चिन्ता क्यों करते हो ?

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे