।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल द्वादशी, वि.सं.–२०७१, रविवार
सभी कर्तव्य कर्मोंका नाम यज्ञ है



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
तीसरे अध्यायके १०-११-१२ श्लोकमें भगवान् कहते हैं ‒
सहयज्ञा प्रजाः सृष्ट्वा     पुरोवाच प्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष     वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥
देवान् भावयतानेन     ते  देवा  भावयन्तु वः ।
परस्परं    भावयन्तः     श्रेयः   परमवाप्स्यथ ॥
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो     यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ॥

इस यज्ञसे वृद्धिको प्राप्त हो । यज्ञके द्वारा पूजित देवता तुम्हारी उन्नति करेंगे । अपने-अपने कर्तव्यद्वारा सृष्टिमात्रको सुख दो । इससे विश्वब्रह्माण्डकाप्राणिमात्रका हित होगा । स्वार्थममताआसक्ति छोड़कर कामना एवं कर्तृत्व-अभिमानका त्याग करके कर्तव्य-कर्म करनेसे सृष्टिमात्रको शान्ति मिलती हैसृष्टिमात्रका उद्धार होता है,कल्याण होता हैहित होता है । कितना बड़ा उपकार होता है केवल कामना छोड़नेसे । जो-जो कर्तव्य-कर्म करते होउसे किये जाओअकर्तव्य तो करो नहीं और कर्तव्य-कर्ममें कामना-आसक्ति न करो तो सारे संसारका हित होगासबका कल्याण होगा‒‘श्रेयः परमवाप्स्यथ ।’ जो दूसरोंको उनका हिस्सा न देकर अकेला खाता है वह चोर है‒स्तेन एव सः ।’

श्रीभगवान् कहते हैं‒
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥

 ‘यज्ञशेष खानेवाले सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाते हैं और जो अपने लिये पकाते-कमाते हैं वे पापी पापका ही भक्षण करते हैं‒निरा पाप खाते हैं ।’ मनुष्यमें स्वार्थबुद्धि जितनी अधिक होगीउतना ही बड़ा पापी वह होगा । एक बात और है । यज्ञ जो किया जाता हैउसमें होम मुख्य है‒आहुति देना मुख्य है ।
अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते ।
आदित्याज्जायते  वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः ॥

अग्निमें दी हुई आहुति सूर्यनारायणकी किरणोंको पुष्टि पहुँचाती है और वे किरणें पुष्ट होकर जल खींचती हैं तथा वह जल मेघ बनकर बरसता है । उस वर्षासे जगत्‌की तृप्ति होती है ।’ इससे भी यही बात प्रकट होती है । शुभ कर्म करनेसे देवताओंकी संतुष्टि होती है । आप यदि अपने माता-पिताकी आज्ञाको मानकर शुभ कर्म करेंगे तो इससे माता-पिता प्रसन्न होंगे ही । उनकी प्रसन्नता क्या सामान्य अर्थ रखती है ? वह बड़ी मूल्यवान् निधि है । इसी प्रकार यदि आप अपने शास्त्रोंकी मर्यादाका पालन करेंगे तो इससे क्या ऋषि-मुनि-देवता आपसे प्रसन्न नहीं होंगे यही है यज्ञके द्वारा उनका पूजन । उनका पूजन किस प्रकार होगा‒यह भी भगवान् बतलाते हैं‒
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो   यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥

प्राणी जितने भी पैदा होते हैंवे अन्नसे होते हैं । अन्न होता है पर्जन्यसे‒वर्षासे और वर्षा यज्ञसे होती है । यज्ञ किससे होता है ? ‘यज्ञः कर्मसमुद्भवः ।’ यज्ञ कर्मसे निष्पन्न होता है । कर्म होता है वेदसे । वेद प्रकट होते हैं अक्षर परमात्मासे ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)    
‒‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे