।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
श्रावण कृष्ण द्वादशीवि.सं.२०७१बुधवार
कर्म-रहस्य



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
 जैसे धन और भोगका प्रारब्ध अलग-अलग होता है अर्थात् किसीका धनका प्रारब्ध होता है और किसीका भोगका प्रारब्ध होता हैऐसे ही धर्म और मोक्षका पुरुषार्थ भी अलग-अलग होता है अर्थात् कोई धर्मके लिये पुरुषार्थ करता है और कोई मोक्षके लिये पुरुषार्थ करता है । धर्मके अनुष्ठानमें शरीरधन आदि वस्तुओंकी मुख्यता रहती है और मोक्षकी प्राप्तिमें भाव तथा विचारकी मुख्यता रहती है ।

एक ‘करना’ होता है और एक ‘होना’ होता है । दोनों विभाग अलग-अलग हैं । करनेकी चीज है‒कर्तव्य और होनेकी चीज है‒फल । मनुष्यका कर्म करनेमें अधिकार है फलमें नहीं‒‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ (गीता २ । ४७) । तात्पर्य यह है कि होनेकी पूर्ति प्रारब्धके अनुसार अवश्य होती हैउसके लिये ‘यह होना चाहिये और यह नहीं होना चाहिये’ऐसी इच्छा नहीं करनी चाहिये और करनेमें शास्त्र तथा लोक-मर्यादाके अनुसार कर्तव्य-कर्म करना चाहिये । ‘करना’ पुरुषार्थके अधीन है और ‘होना’ प्रारब्धके अधीन है । इसलिये मनुष्य करनेमें स्वाधीन है और होनेमें पराधीन है । मनुष्यकी उन्नतिमें खास बात है‒‘करनेमें सावधान रहे और होनेमें प्रसन्न रहे ।’

क्रियमाणसंचित और प्रारब्ध‒तीनों कर्मोसे मुक्त होनेका क्या उपाय है ?

प्रकृति और पुरुष‒ये दो हैं । प्रकृति सदा क्रियाशील हैपर पुरुषमें कभी परिवर्तनरूप क्रिया नहीं होती । प्रकृतिसे अपना सम्बन्ध माननेवाला ‘प्रकृतिस्थ’ पुरुष ही कर्ता-भोक्ता बनता है । जब वह प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है अर्थात् अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता हैतब उसपर कोई भी कर्म लागू नहीं होता ।

प्रारब्ध-सम्बन्धी अन्य बातें इस प्रकार हैं‒

(१) बोध हो जानेपर भी ज्ञानीका प्रारब्ध रहता है‒यह कथन केवल अज्ञानियोंको समझानेमात्रके लिये है । कारण कि अनुकूल या प्रतिकूल घटनाका घट जाना ही प्रारब्ध है । प्राणीको सुखी या दुःखी करना प्रारब्धका काम नहीं हैप्रत्युत अज्ञानका काम है । अज्ञान मिटनेपर मनुष्य सुखी-दुःखी नहीं होता । उसे केवल अनुकूलता-प्रतिकूलताका ज्ञान होता है । ज्ञान होना दोषी नहीं हैप्रत्युत सुख-दुःखरूप विकार होना दोषी है । इसलिये वास्तवमें ज्ञानीका प्रारब्ध नहीं होता ।

(२) जैसा प्रारब्ध होता हैवैसी बुद्धि बन जाती है । जैसेएक ही बाजारमें एक व्यापारी मालकी बिक्री कर देता है और एक व्यापारी माल खरीद लेता है । बादमें जब बाजारभाव तेज हो जाता हैतब बिक्री करनेवाले व्यापारीको नुकसान होता है तथा खरीदनेवाले व्यापारीको नफा होता है और जब बाजार-भाव मन्दा हो जाता हैतब बिक्री करनेवाले व्यापारीको नफा होता है तथा खरीदनेवाले व्यापारीको नुकसान होता है । अतः खरीदने और बेचनेकी बुद्धि प्रारब्धसे बनती है अर्थात् नफा या नुकसानका जैसा प्रारब्ध होता हैउसीके अनुसार पहले बुद्धि बन जाती है,जिससे प्रारब्धके अनुसार फल भुगताया जा सके । परन्तु खरीदने और बेचनेकी क्रिया न्याययुक्त की जाय अथवा अन्याययुक्त की जाय‒इसमें मनुष्य स्वतन्त्र हैक्योंकि यह क्रियमाण (नया कर्म) हैप्रारब्ध नहीं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे