।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
आश्विन कृष्ण द्वादशीवि.सं.२०७१शनिवार
द्वादशीश्राद्ध
मानसमें नाम-वन्दना



प्रवचन- १

श्रीसीताराम-वन्दना

गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न ।
बंदउँ सीता राम पद    जिन्हहि  परम प्रिय खिन्न ॥
                                                                  (मानस, बालकाण्ड, दोहा १८)

गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज कथा प्रारम्भ करनेसे पहले सभीकी वन्दना करते हैं । इस दोहेमें श्रीसीतारामजीको नमस्कार करते हैं । इसके बाद नाम-वन्दना और नाम-महिमाको लगातार नौ दोहे और बहत्तर चौपाइयोंमें कहते हैं । श्रीगोस्वामीजी महाराजको यह नौ संख्या बहुत प्रिय लगती है । नौ संख्याको कितना ही गुणा किया जाय, तो उन अंकोंको जोड़नेपर नौ ही बचेंगे । जैसे, नौ संख्याको नौसे गुणा करनेपर इक्यासी होते हैं । इक्यासीके आठ और एक, इन दोनोंको जोड़नेपर फिर नौ हो जाते हैं । इस प्रकार कितनी ही लम्बी संख्या क्यों न हो जाय, पर अन्तमें नौ ही रहेंगे; क्योंकि यह संख्या पूर्ण है ।

गोस्वामीजी महाराजको जहाँ-कहीं ज्यादा महिमा करनी होती है तो नौ तरहकी उपमा और नौ तरहके उदाहरण देते हैं । नौ संख्या आखिरी हद है, इससे बढ़कर कोई संख्या नहीं है । यह नौ संख्या अटल है ।
संबत    सोरह   सै    एकतीसा ।
करउँ कथा हरि पद धरि सीसा ॥
नौमी   भौम    बार   मधुमासा ।
अवधपुरी   यह  चरित प्रकासा ॥
                                                   (मानस, बालकाण्ड, दोहा ३४ । ४,५)

रामजन्म तिथि बार सब जस त्रेता महँ भास ।
तस इकतीसा महँ को   जोग लगन ग्रह रास ॥

भगवान् श्रीरामने त्रेतायुगमें चैत्र मास, शुक्लपक्ष, नवमी तिथि, मंगलवारके दिन शुभ मुहूर्तके समय अयोध्यामें अवतार लिया । भगवान्‌के अवतारके दिन जैसा शुभ मुहूर्त था, ठीक वैसा ही शुभ मुहूर्तका संयोग संवत् १६३१ में भगवान्‌के अवतारके दिन बना । श्रीगोस्वामीजी महाराजने अयोध्यामें उसी दिन श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ लिखना आरम्भ किया । जबतक ऐसा संयोग नहीं बना, तबतक वैसे शुभ मुहूर्तकी प्रतीक्षा करते रहे ।

यहाँ अठारहवें दोहेमें श्रीसीतारामजीके चरणोंकी वन्दना करते हैं । सीतारामजीकी बहुत विलक्षणता है । जिन्हहि परम प्रिय खिन्न’ दुःखी आदमी किसीको प्यारा नहीं लगता । दीन-दुःखीको सब दुत्कारते हैं, पर सीतारामजीको जो दुःखी होता है, वह ज्यादा प्यारा लगता है, वह उनका परमप्रिय है, उसपर विशेष कृपा करते हैं । उन श्रीसीतारामजीके चरणोंमें मैं प्रणाम करता हूँ ।

श्रीसीतारामजी अलग-अलग नहीं हैं । इस बातको समझानेके लिये दो दृष्टान्त देते हैं । जैसे, गिरा-अरथ और जल-बीचि कहनेका तात्पर्य है कि वाणी और उसका अर्थ कहनेमें दो हैं, पर वास्तवमें दो नहीं, एक हैं । वाणीसे कुछ भी कहोगे तो उसका कुछ-न-कुछ अर्थ होगा ही और किसीको कुछ अर्थ समझाना हो तो वाणीसे ही कहा जायगा‒ऐसे परस्पर अभिन्न हैं । इसी तरह जल होगा तो उसकी तरंग भी होगी । तरंग और जल कहनेमें दो हैं, पर जलसे तरंग या तरंगसे जल अलग नहीं है एक ही है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे