।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
कार्तिक कृष्ण नवमी, वि.सं.२०७१, शुक्रवार
मानसमें नाम-वन्दना



(गत ब्लॉगसे आगेका)

कलियुगमें ऐसा जोरोंसे पाप छा जायगा कि मनुष्योंका मन जलमें मछलीकी तरह पापोंमें रम जायगा अर्थात् जैसे मछलीको जलसे दूर कर देनेपर वह घबरा जाती है, उसको पहले अगर यह समझमें आ जाय कि तुम्हें जलसे दूर कर देंगे तो वह घबरा जायगी; क्योंकि वह जलके बिना जी नहीं सकती, ऐसे ही ‘पाप पयोनिधि’पापरूपी तो हुआ समुद्र और उसमें ‘जन मन मीना’यह मनुष्योंका मन मछली हो गया ।

आज अगर कहा जाय कि ब्लेक मत करो, झूठ-कपट मत करो, बेईमानी मत करो, न्यायसे काम करो तो कहते हैं, ‘महाराज ! झूट-कपटके बिना आजके जमानेमें काम नहीं चलता । ईमानदारीसे अगर काम करें तो बड़ी मुश्किल हो जायगी । हमारेसे यह नहीं होगा ।’ पापसे दूर करनेकी बात सुनाते ही काँपते हैं । वे कहते हैं कि पाप छोड़ देंगे तो गजब हो जायगा, फिर तो हमारा निर्वाह होगा ही नहीं । हमारा तो झूठ-कपट-बेईमानीसे ही काम चलता है ।

इन बातोंसे ऐसा नहीं मानना चाहिये कि दुराचारी-पापी, अन्यायी मनुष्य भजनमें नहीं लग सकता । गीता कहती है

अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामानन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
                                                       (९ । ३०)

सांगोपांग दुराचारी भी यदि पक्‍का विचार करके भजनमें लग जाय तो उसे मामूली आदमी नहीं समझना चाहिये । भगवान् कहते हैं‘उसे साधु ही मानना चाहिये; क्योंकि उसने निश्चय पक्का कर लिया ।’

        भगवान्‌ने गीतामें चार प्रकारके भक्त बतायें हैं‘आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ’आर्त और अर्थार्थी भक्त भगवान्‌का नाम लेते हैं । जिज्ञासु भी उनका नाम लेता है । परन्तु ज्ञानी तो ‘प्रभुहि बिसेषि पियारा’, ‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’वह तो भगवान्‌की आत्मा ही है ।

अर्थार्थी भक्त ध्रुव

संसारका आकर्षण रखनेवाले ‘आर्त’ और ‘अर्थार्थी’ भी भगवान्‌के ही भक्त होते हैं । परन्तु धनके लिये भगवान्‌का नाम लेनेसे उसे ‘अर्थार्थी’ या ‘आर्त’ भक्त नहीं कहा जाता । ‘अर्थार्थी’ और ‘आर्त’ भक्त तो वे कहलाते हैं, जो धनके लिये केवल भगवान्‌के ऊपर ही भरोसा रखते हैं । धन प्राप्त करेंगे तो केवल भगवान्‌से ही, दूसरे किसीसे नहींऐसा उनका दृढ़ निश्चय होता है ।

जैसे, ध्रुवजी महाराजको नारदजीने कहा कि ‘तुम वापस घरपर चलो । हम राजासे कहकर तुम्हारा और तुम्हारी माँका प्रबन्ध करावा देंगे । तुम्हें राज्य भी दिलवा देंगे ।’ ध्रुवने जब इस बातको स्वीकार नहीं किया तो उसे डराया कि देख ! जंगलमें बाघ, चीते, सर्प आदि बड़े-बड़े भयंकर जन्तु हैं, वे तुझे खा जायेंगे, पर न तो वह डरा और न धनके लोभमें ही आया । ध्रुवजी तो नाम-जपमें लग ही गये, यद्यपि ध्रुवजीकी आरम्भमें शुद्ध भावना नहीं थी । उस समय उनके मनमें राज्यका लोभ था । इस विषयमें श्रीगोस्वामीजीमहाराज कहते हैं

ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ ।
पायउ   अचल  अनुपम   ठाऊँ ॥
                                                       (मानस, बालकाण्ड २६ । ५)

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे