।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
आश्विन शुक्ल नवमी, वि.सं.२०७१, शुक्रवार
विजयादशमी, एकादशी-व्रत कल है
करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन और
करणरहित साध्य




          परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति चाहनेवाले साधकोंके लिये साधनकी दो शैलियाँ हैं‒करणसापेक्ष अर्थात् क्रियाप्रधान शैली और करणनिरपेक्ष अर्थात् विवेकप्रधान शैली । जिस शैलीमें करण (इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि) तथा क्रियाकी प्रधानता रहती है उसकोकरणसापेक्ष साधन’ कहते हैं और जिस शैलीमें सत्-असत्‌के विवेककी प्रधानता रहती है, उसको करणनिरपेक्ष साधन’ कहते हैं ।

करण क्या है ?

क्रियाकी सिद्धिमें जो प्रधान हेतु होता है, उसको करण’ कहते हैं । जैसे, सुननेमें कान करण हैं, स्पर्श करनेमें त्वचा करण है, देखनेमें आँख करण हैं, चखनेमें रसना करण है, सूँघनेमें नाक करण है, चिन्तन करनेमें चित्त करण है, किसी बातको समझनेमें बुद्धि करण है, कर्ता-भोक्ता बननेमें अहम् करण है । तात्पर्य है कि सांसारिक कार्य करनेके जितने औजार हैं वे सब करण’ कहलाते हैं ।

शरीरमें कुल तेरह करण हैं । श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, घ्राण, वाणी, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा‒ये दस (ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियाँ) बहिःकरण’ हैं तथा मन, बुद्धि और अहंकार‒ये तीन अन्तःकरण’[1] हैं ।

करणसापेक्ष और करणनिरपेक्ष क्या है ?

जिसमें करणकी अत्यन्त आवश्यकता रहती है, वह करणसापेक्ष’ होता है और जिसमें करणकी आवश्यकता नहीं रहती, वह करणनिरपेक्ष’ होता है । जैसे, क्रियाकी सिद्धिमें करणकी अत्यन्त आवश्यकता रहती है; क्योंकि करणके बिना कियाकी सिद्धि नहीं होती; अतः क्रियाकी सिद्धि करणसापेक्ष है । परन्तु परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें करणकी आवश्यकता नहीं है; क्योंकि वह तत्त्व क्रियासे अतीत है; अतः परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति करणनिरपेक्ष है ।

करणनिरपेक्ष और करणरहितमें अन्तर

साधन करणनिरपेक्ष होता है और साध्य करणरहित होता है । परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति करणनिरपेक्ष है, पर परमात्मतत्त्व करणरहित है ।

        दो व्यक्ति बातचीत करते हैं तो उसमें बोलनेके लिये जीभकी और सुननेके लिये कानकी जरूरत है, पर त्वचाकी जरूरत नहीं है । इसलिये उनकी बातचीतको त्वचानिरपेक्ष तो कह सकते हैं, पर त्वचारहित नहीं कह सकते । कारण कि अगर मनुष्य त्वचारहित होगा तो वह बातचीत कैसे कर सकेगा ? ऐसे ही साधन करणनिरपेक्ष तो होता है, पर करणरहित नहीं होता ।
   
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे


[1] कहीं मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार‒ये चार अन्तःकरण बताये गये हैं, कहीं मन, बुद्धि और अहंकार‒ये तीन अन्तःकरण बताये गये हैं और कहीं मन (चित्त) और बुद्धि (अहंकार)‒ये दो अन्तःकरण बताये गये हैं । इन सबमें अहंकार’ मुख्य है ।