दूसरे दिन फिर वह धोती और लोटा लेकर गया । वहीं वही संत बैठे
थे । उस सेठको देखकर संतने कहा‒‘राम- राम !’ तब उसकी आँख खुली कि यह सब इन संतका चमत्कार है । संतने कहा‒‘तुम भगवान्का नाम
लिया करो, हरेकका तिरस्कार, अपमान मत किया करो । जाओ, अब तुम अपने घर जाओ ।’ वह सेठ सदाकी तरह चुपचाप अपने
घर आ गये ।
अभिमानमें आकर लोग तिरस्कार कर देते हैं । धनका अभिमान
बहुत खराब होता है । धनी आदमीके
प्रायः भक्ति लगती नहीं । धनी आदमी भक्त होते ही नहीं, ऐसी बात भी नहीं है । राजा अम्बरीष भक्त हुए हैं । और भी बहुत-से धनी आदमी भगवान्के
भक्त हुए हैं; परंतु धनका अभिमान उनके नहीं था । उन्हें धनकी परवाह नहीं थी
। भगवान् अभिमानको अच्छा नहीं समझते‒ ‘अभिमानद्वेषित्वाद्दैन्यप्रियत्वाच्च’ । नारदजी-जैसे भक्तको भी अभिमान
आ गया । ‘जिता काम अहमिति मन माहीं ।’ (मानस, बालकाण्ड, दोहा १२७ । ५) अभिमानकी अधिकता आ गयी कि मैंने कामपर विजय कर ली तो क्या दशा हुई उनकी ? भगवान् अपने भक्तका अभिमान रहने ही नहीं देते ।
ताते करहिं कृपानिधि दूरी ।
सेवक पर ममता अति भूरी ॥
(मानस, उत्तरकाण्ड, दोहा ७४ । ७)
अभिमानसे बहुत पतन होता है । उस अभिमानको भगवान् दूर करते हैं
। आसुरी सम्पत्ति और जितने दुर्गुण-दुराचार हैं, सब-के-सब अभिमानकी छायामें रहते हैं । महाभारतमें आया है‒बहेड़ेकी छायामें कलियुगका
निवास है, ऐसे ही सम्पूर्ण आसुरी सम्पत्तिका निवास अभिमानकी छायामें है
। धनका, विद्याका भी अभिमान आ जाता है । हम साधु हो जाते हैं तो वेश-भूषाका
भी अभिमान आ जाता है कि हम साधु हैं । हमें क्या समझते हो‒यह भी एक फूँक भर जाती है
। अरे भाई, फूँक भर जाय दरिद्रताकी । धनवत्ताकी भरे उसमें तो बात ही क्या
है ! धनीके यहाँ रहनेवाले मामूली नौकर आपसमें बात करते हैं‒‘कोई भाग्यके
कारण पैसे मिल गये; परंतु सेठमें अक्ल नहीं है ।’ उनको पूछा जाय, ‘तुम ऐसे अक्लमन्द होकर बेअकलके यहाँ क्यों रहते हो’ ? ऐसे ही पण्डितोंको अभिमानी लोग कहते हैं‒‘पढ़ गये तो
क्या हुआ अक्ल है ही नहीं ।’ मानो अक्ल तो सब-की-सब उनके पास ही है । दूसरे सब बेअक्ल
हैं ।
‘अकलका अधूरा और गाँठका पूरा’ मिलना बड़ा मुश्किल है । धन
मेरे पास बहुत हो गया, अब धनकी मुझे जरूरत नहीं है और मेरेमें समझकी कमी है, थोड़ा और समझ लूँ‒ऐसे सोचनेवाले आदमी कम मिलते हैं । दोनोंका अजीर्ण हुआ रहता है
। दरिद्रताका भी अभिमान हो जाता है । साधारण लोग कहते हैं‒‘सेठ हैं, तो अपने घरकी सेठानीके हैं । हम क्या धरावें सेठ है तो ?’ यह बहुत ही खराब है । भगवान् ही बचाये तो आदमी बचता है, नहीं तो हरेक हालतमें अभिमान आ जाता है । इसलिये अभिमानसे सदा
सावधान रहना चाहिये ।
(शेष
आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें
नाम-वन्दना’ पुस्तकसे |