।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
कार्तिक पूर्णिमा, वि.सं.२०७१, गुरुवार
श्रीगुरुनानक-जयन्ती, कार्तिकी-पूर्णिमा, 
कार्तिक-स्नान समाप्त
करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और
करणरहित साध्य



(गत ब्लॉगसे आगेका)

२. विवेककी आवश्यकता

मनुष्योंके अन्तःकरणमें यह बात बड़ी गहराईसे बैठी हुई है कि जो कुछ होगा, करनेसे ही होगा । परमात्माकी प्राप्ति भी तभी होगी, जब उसके लिये उद्योग करेंगे । जब संसारका काम भी बिना कुछ किये नहीं होता तो फिर सबसे ऊँचे परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति बिना कुछ किये कैसे हो जायगी ? आदि-आदि । इतना ही नहीं, वेदोंमें, शास्त्रोंमें, सन्तवाणीमें, सब जगह परमात्मप्राप्तिके लिये प्रायः करनेकी बातपर ही जोर दिया गया है ।

वास्तवमें ‘जो कुछ होगा, करनेसे ही होगा’यह बात उसीमें लागू होती है, जो उत्पन्न होनेवाला और अप्राप्त है । जो अनुत्पन्न और नित्यप्राप्त है, उसमें यह बात लागू नहीं होती । कारण कि अनुत्पन्न और नित्यप्राप्त तत्त्वका निर्माण नहीं करना है, उसको कहींसे लाना नहीं है, प्रत्युत उसका अन्वेषण करना है, अनुभव करना है, उसकी तरफ लक्ष्य करना है । तात्पर्य है कि कुछ करनेकी बात संसारके लिये है, परमात्माके लिये नहीं । संसारकी प्राप्तिका जो तरीका है, वह तरीका परमात्माकी प्राप्तिका नहीं है । कारण कि संसार सब समय सबको समानरूपसे प्राप्त नहीं है, जब कि परमात्मा सब समय सबको समानरूपसे प्राप्त हैं । वे परमात्मा सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति, घटना आदिमें समानरूपसे परिपूर्ण हैं । संसारको प्राप्त मान लिया, ‘नहीं’ को ‘है’ मान लिया, इसी कारण परमात्मतत्त्व (‘है’) का अनुभव नहीं हो रहा है ।

उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंकी प्राप्ति तो कर्म करनेसे होती है, पर अनुत्पन्न तत्त्वकी प्राप्ति अपने विवेकको महत्त्व देनेसे होती है । अतः परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति क्रियासाध्य नहीं है, प्रत्युत विवेकसाध्य है । अपने विवेकको महत्त्व देना ही ‘करणनिरपेक्ष साधन’ है ।

जैसे विवेक करणनिरपेक्ष है, ऐसे करणसापेक्ष साधन विवेकनिरपेक्ष नहीं है । वास्तवमें कोई भी साधन विवेकनिरपेक्ष हो ही नहीं सकता । कारण कि विवेकको तो क्रियाकी आवश्यकता नहीं है, पर क्रियाको विवेककी बड़ी भारी आवश्यकता है । विवेकके बिना क्रिया जड है और क्रियाके बिना विवेक चिन्मय तत्त्वज्ञान है । इसलिये कर्मोंसे मनुष्य बँधता है और विवेकसे मुक्त हो जाता है‒

कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया तु प्रमुच्यते ।
                                                       (महा शान्ति २४१ । ७)

तपस्या, यज्ञ, दान, तीर्थ, व्रत आदि जितने भी श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ कर्म हैं, उनके बलपर परमात्माकी प्राप्ति नहीं हो सकती ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे