(गत ब्लॉगसे आगेका)
अर्जुन भगवान्से कहते हैं‒
न हि ते भगवन्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः
॥
(गीता १० । १४)
‘हे भगवन् ! आपके प्रकट
होनेको न तो देवता जानते हैं और न दानव जानते हैं ।’
तात्पर्य है कि देवताओंमें जो दिव्यता
है वह भगवान्को जाननेमें कुछ भी काम नहीं आती । जब देवता भी भगवान्को नहीं जान सकते
तो फिर दानव उनको जान ही कैसे सकते हैं ? परन्तु अर्जुन दानवोंके द्वारा भी भगवान्को न जाननेकी बात कहते हैं । इसका तात्पर्य
यह है कि दानवोंके पास मायाकी बहुत विलक्षण शक्ति है; परन्तु वह मायाशक्ति भी भगवान्को जाननेमें कुछ काम नहीं
आती । अतः मनुष्य, देवता, दानव आदि कोई भी अपने बलसे, अपनी योग्यतासे, अपनी बुद्धिसे भगवान्को नहीं प्राप्त
कर सकते ।
सब-के-सब साधन मिलकर भी परमात्माकी
प्राप्ति नहीं करा सकते । वास्तवमें सभी साधन अपने बलका अभिमान
खर्च करनेके लिये ही हैं । अतः साधनसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत अपने बलका अभिमान (जो परमात्मप्राप्तिमें
बाधक है) दूर होता है । साधन करते-करते जब साधकको यह पता लग जाता है कि अपनी सामर्थ्यसे
कुछ नहीं होगा, तब उसका अभिमान मिट जाता
है और परमात्मप्राप्ति हो जाती है‒
दौड़ सके तो दौड़ ले, जब लगि तेरी
दौड़ ।
दौड़ थक्या धोखा मिट्या, वस्तु ठौड़-की-ठौड़ ॥
जिसकी स्कुरणामात्रसे अनन्त ब्रह्माण्ड
पैदा हो जाते हैं, उसको सम्पूर्ण संसार देकर भी कोई कैसे
प्राप्त कर सकता है ? हमारा अधिकार उसीपर हो सकता है, जिसमें हमारेसे कम बल, बुद्धि, योग्यता, विद्वत्ता आदि हो । परमात्मामें बलकी कमी नहीं है । उनमें
अनन्त बल है । परन्तु उनमें निर्बलता नहीं है । वह निर्बलता हमारे पास है ! इसलिये
निर्बल होकर पुकारनेसे वे प्राप्त हो जाते हैं‒
जब लगि गज बल अपनो बरत्यो, नेक सरयो नहि काम ।
निरबल ह्वै बलराम पुकारयो, आये आधे नाम ॥
सुने री मैंने निरबल के बल
राम ।
अशक्तानां हरिर्बलम् (ब्रह्मवैवर्त॰ गण॰ ३५ । ९६)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे
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