Dec
02
(गत ब्लॉगसे आगेका)
सच्ची बात दृढ़ न होनेमें
मुख्य बाधा है‒संयोगजन्य सुखकी लोलुपता अर्थात् संसारका आकर्षण । परन्तु यह बाधा भी वास्तवमें साधककी
बनायी हुई है और वह इसको मिटा सकता है । कारण कि उसमें इस बाधाको मिटानेका बल भी है, योग्यता भी है, अधिकार भी है विवेक भी है और इसके लिये संसारकी, सन्त-महात्माओंकी तथा भगवान्की सहायता भी प्राप्त है ।
प्रश्न‒संसारका आकर्षण कैसे मिटायें ?
उत्तर‒विवेक-विचारपूर्वक देखा जाय तो संसारका
आकर्षण जड़ (मन-बुद्धि-अहम्) में ही है, स्वयंमें नहीं है । परन्तु जड़से तादात्म्यके कारण स्वयंने इसको अपनेमें मान लिया
है । संसार तो बहता है, पर स्वयं रहता है । कभी पूर्वसंस्कारवश
ऐसा दीखता है कि स्वयं भी भोगोंमें बह गया, पर वास्तवमें स्वयं बहा नहीं है, प्रत्युत अहम्के कारण तादात्म्य होनेसे उसने अपना बहना मान लिया है । स्वयंका
बहना त्रिकालमें भी सम्भव नहीं है । वह शरीरमें स्थित होते हुए भी भोगोंसे लिप्त नहीं
होता‒
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते
।
(गीता १३ । ३१)
जैसे संसार निरन्तर मिट रहा है, ऐसे ही उसका आकर्षण भी निरन्तर मिट रहा है । उत्पन्न होनेवाली यावन्मात्र वस्तु मिटती है‒यह नियम है । अतः
उसको रखनेका प्रयत्न करना भी भूल है और उसको मिटानेका प्रयत्न करना भी भूल है ! इसलिये
साधकको चाहिये कि वह उस आकर्षणको महत्त्व न दे, प्रत्युत उसकी उपेक्षा (बेपरवाह) कर
दे । उपेक्षा करनेसे वह अपने-आप मिट जायगा । जैसे, पानीमें मिट्टी मिली हुई हो तो हम ज्यों-ज्यों हाथसे मिट्टीको
थपकाकर नीचे बैठानेका प्रयल करेंगे, त्यों-ही-त्यों मिट्टी ऊपर आयेगी । अगर हम पानी और मिट्टीको बिलकुल न छेड़ें तो
मिट्टी अपने-आप नीचे बैठ जायगी । ऐसे ही परिश्रम आदि कुछ करनेसे संसारका आकर्षण नहीं
मिटेगा । उसकी उपेक्षा करके चुप हो जाये तो वह अपने-आप मिट जायगा और शुद्ध स्वरूप रह
जायगा; क्योंकि मिटना संसारका स्वभाव है और शुद्ध रहना स्वयंका
स्वभाव है‒
ईस्वर अंस जीव
अबिनासी ।
चेतन अमल सहज सुख रासी ॥
(मानस ७ । ११७
। २)
मेरेमें आकर्षण है और वह मिटता नहीं
है‒इस भावसे ही भोगोंका आकर्षण टिका हुआ है । कारण कि हम सब सत्यसंकल्प परमात्माके
साक्षात् अंश हैं और परमात्मारूपी कल्पवृक्षके नीचे हैं; अतः हम जैसा भाव रखेंगे, वैसा ही हो जायगा । इसलिये ‘आकर्षण
मेरेमें नहीं है’‒यह भाव आकर्षणको मिटानेका
रामबाण उपाय है; क्योंकि यह वास्तविकता है और वास्तविकताको दृढ़तासे स्वीकार करना साधकका कर्तव्य है ।
मन-बुद्धि
और संसार (विषय)‒दोनों एक ही जातिके हैं । इसलिये मन-बुद्धिका अपनी ही जातिके संसारकी
तरफ आकर्षण हो रहा है तो इससे अपनी सत्तामें क्या फर्क पड़ा ? अतः साधकको
चाहिये कि वह मन-बुद्धि तथा उसमें रहनेवाला आकर्षण‒दोनोंको छोड़कर स्वयंमें स्थित रहे‒‘मद्रूप उभयं त्यजेत्’ (श्रीमद्भा॰ ११ । १३ । २६)[1]
[1] इस विषयको विस्तारसे समझनेके लिये गीताप्रेससे
प्रकाशित ‘सहज साधना’ पुस्तकका पहला लेख और ‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकका तेरहवाँ एवं चौदहवाँ लेख विशेषरूपसे पढ़ने चाहिये
।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे |