।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.२०७१, गुरुवार
करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और
करणरहित साध्य


               
                      
 (गत ब्लॉगसे आगेका)

पारमार्थिक उन्नतिमें त्याग ही मुख्य है । हिरण्यकशिपु, रावण आदि असुरों-राक्षसोंमें भी तपस्या आदि नियम (विधि) तो मिलते हैं, पर त्याग (निषेध) नहीं मिलता । त्याग केवल परमात्मप्राप्ति चाहनेवालोंमें ही मिलता है । इसलिये नियमोंके पालनकी अपेक्षा अहिंसादि यमोंके पालनको श्रेष्ठ बताया गया है‒

यमानभीक्ष्णं सेवेत नियमान् मत्परः क्वचित् ।
                                        (श्रीमद्भा ११ । १० । ५)

करणनिरपेक्ष साधनमें करणोंका त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद) है । करणसापेक्ष साधनमें भी अन्तमें करणोंका त्याग होनेसे ही तत्त्वप्राप्ति होती है । त्याग करण (जड) का ही होता है, तत्त्वका नहीं । कारण कि त्याग उसीका होता है, जो स्वतः हमारा त्याग कर रहा है अर्थात् जिससे हमारी एकात्मता नहीं है । तात्पर्य है कि नित्यप्राप्तकी ही प्राप्ति होती है और अप्राप्तका ही निषेध होता है । ‘है’ की ही प्राप्ति होती है और ‘नहीं’ की ही निवृत्ति होती है । ‘है’ सदा स्वतः प्राप्त है ही और ‘नहीं’ सदा स्वतः निवृत्त है ही !

‘परमात्मतत्त्व है’ऐसा मानना भी वास्तवमें ‘संसार नहीं है’इस प्रकार संसारका निषेध करनेके लिये ही है । इसी तरह ‘मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान् मेरे हैं’इसका तात्पर्य भी वास्तवमें ‘मैं संसारका नहीं हूँ और संसार मेरा नहीं है’इस प्रकार संसारका निषेध करनेमें ही है । यह भक्तिकी विशेषता है कि अनन्यभावपूर्वक ‘मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान् मेरे हैं’इस प्रकार विधिमुखसे माने हुए साधनको भी भगवान् कृपा करके सिद्ध कर देते हैं[1] अर्थात् भक्तका अनन्यभाव पूर्ण कर देते हैं, अभावरूप संसारका सदाके लिये अभाव कर देते हैं । तात्पर्य है कि भक्त अहम्‌को बदलता है और भगवान् उसके अहम्‌को मिटा देते हैं[2]

जबतक निषेध नहीं होता, तबतक विधिकी सिद्धि नहीं होती । मीराबाईने कहा है‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ तो इसमें ‘दूसरो न कोई’‒यह निषेध है । इस निषेधसे ऐसी सिद्धि हुई कि उनका शरीर भी चिन्मय होकर भगवान्‌के विग्रहमें लीन हो गया ! कारण कि जडताकी निवृत्ति होनेपर चिन्मयता ही शेष रहती है । ‘मेरे तो गिरधर गोपाल’‒ऐसा तो बहुत-से मनुष्य मानते हैं पर इससे भगवान्‌की प्राप्ति नहीं हो जाती । अगर इसके साथ ‘दूसरो न कोई’‒ऐसा भाव नहीं होगा तो संसारके अन्य सम्बन्धोंकी तरह भगवान्‌का भी एक और नया सम्बन्ध हो जायगा ! अगर ‘मेरा कोई नहीं है’इस तरह सर्वथा निषेध हो जाय तो बोध हो जायगा । बोध होते ही नित्यप्राप्तकी प्राप्ति हो जायगी । कारण कि जबतक दूसरी सत्ताकी मान्यता है, तभीतक विवेक है । दूसरी सत्ताकी मान्यता न रहे तो वह तत्त्वबोध ही है ।


[1] अन्यके निषेधका उद्देश्य होनेसे ही ‘अनन्यभाव’ होता है । अतः ‘मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान् मेरे हैं’इस विधिमें भी (अनन्यभाव होनेके कारण) अन्यके निषेधकी ही मुख्यता है ।

[2] तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं             तमः ।
    नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपिते भास्वता ॥
                                                    (गीता १० । ११)

‘उन भक्तोंपर कृपा करनेके लिये हि उनके स्वरूप (होनेपन) में रहनेवाला मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको देदीप्यमान ज्ञानरूप दीपकके द्वारा सर्वथा नष्ट कर देता हूँ ।’
   
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे