।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
माघ शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७१, गुरुवार
करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और
करणरहित साध्य
                     

(गत ब्लॉगसे आगेका)

तात्पर्य है कि वास्तविक सत्ता एक ही है । एकदेशीय, उत्पन्न होनेवाली, व्यावहारिक और प्रातिभासिक (प्रतीत होनेवाली) सत्ता वास्तवमें सत्ता नहीं है, प्रत्युत सत्ताका आभासमात्र है अर्थात् वह सत्ताकी तरह दीखती है, पर सत्ता नहीं है । वास्तविक सत्ता अनुभवमें आनेवाली वस्तु नहीं है, प्रत्युत अनुभवरूप है । हम उसको इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि (करण) के द्वारा देखना, अनुभव करना चाहते हैं‒यह हमारी भूल है । जो इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे देखा जायगा, वह सत् कैसे होगा ? जो सबको देखनेवाला (प्रकाशित करनेवाला) है, उसको कौन देख सकता है ? अतः उस वास्तविक सत्ताका अनुभव करना हो तो साधक बाहर-भीतरसे चुप हो जाय, कुछ भी चिन्तन न करे ।

१०. शरणागति

जिसमें विचारकी प्रधानता नहीं है, प्रत्युत श्रद्धा-विश्वासकी प्रधानता है, ऐसा साधक ‘मैं संसारका नहीं हूँ और संसार मेरा नहीं है, प्रत्युत मैं परमात्माका हूँ और परमात्मा मेरे हैं’इस प्रकार संसारसे विमुख होकर परमात्माके सम्मुख हो जाय अर्थात् परमात्माके शरण हो जाय ।

जब साधक अपनेको किसी साधनके योग्य नहीं मानता अर्थात् अपनी शक्तिसे कुछ कर नहीं सकता और परमात्माको प्राप्त किये बिना रह नहीं सकता, तब वह शरणागतिका अधिकारी होता है[*] । जैसे नींद स्वाभाविक आती है, उसके लिये कोई परिश्रम (अभ्यास) नहीं करना पड़ता, ऐसे ही जब साधक संसारसे निराश हो जाता है और परमात्माकी आशा छूटती नहीं, तब वह स्वाभाविक ही परमात्माके शरण हो जाता है । शरण होनेके लिये उसको कोई अभ्यास नहीं करना पड़ता । कारण कि शरण होनेमें किसी करणकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत भावकी जरूरत है । भाव स्वयंका होता है, किसी करणका नहीं । जैसे, कन्याका विवाह होता है तो ‘अब मैं पतिकी हूँ’ ऐसा भाव होते ही उसका माँ-बापसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और पतिके साथ सम्बन्ध हो जाता है । पतिके साथ सम्बन्ध जोड़नेमें किस करणकी जरूरत है ? किस अभ्यासकी जरूरत है ? अर्थात् किसी भी करणकी, अभ्यासकी जरूरत नहीं है । ‘मैं पतिकी हूँ’यह मान्यता (स्वीकृति) स्वयंकी है, किसी करणकी नहीं[†]

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे


[*] हौं हार्‌यौ करि जतन बिबिध बिधि अतिसै प्रबल अजै ।
   तुलसिदास  बस होइ  तबहिं    जब  प्रेरक  प्रभु बरजै ॥
                                                          (विनयपत्रिका ८९)
[†] मन-बुद्धिसे जो मान्यता होती है, उसकी विस्मृति हो जाती है, पर स्वयंसे होनेवाली मान्यताकी विस्मृति नहीं होती, उसको याद नहीं रखना पड़ता । जैसे, ‘मैं विवाहित हूँ’यह मान्यता स्वयंसे होती है; अतः याद न रखनेपर भी इसकी कभी भूल नहीं होती । विवाहमें तो नया सम्बन्ध होता है, पर परमात्माका सम्बन्ध अनादिकालसे स्वतः है । जब नये (बनावटी) सम्बन्धकी भी विस्मृति नहीं होती तो फिर स्वतःसिद्ध सम्बन्धकी विस्मृति हो ही कैसे सकती है ? ‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्’ (गीता ४ । ३५)