Jan
25
(गत ब्लॉगसे आगेका)
रुपये आदि तो जब हम खर्च करते हैं तभी खर्च होते हैं,
नहीं तो तिजोरीमें पड़े रहते हैं,
पर समय तो अपने-आप ही खर्च होता चला जा रहा है,
उसका खर्च होना कभी बंद होता ही नहीं । अन्य वस्तुएँ तो नष्ट
होनेपर भी पुनः उत्पन्न की जा सकती हैं, पर गया हुआ समय किसी प्रकार भी लौटाया नहीं जा सकता । अतः हमें उचित है कि बचे हुए समयके एक क्षणको भी निरर्थक नष्ट न
होने देकर अति-कृपणके धनकी तरह उसकी कीमत समझकर उसे ऊंचे-से-ऊंचे काममें लगायें । प्रथम
श्रेणीका सर्वोत्कृष्ट काम है‒पारमार्थिक पूँजीका संग्रह । दूसरी श्रेणीका काम
है‒सांसारिक निर्वाहके लिये न्यायपूर्वक द्रव्योपार्जन । इनमेंसे दूसरी श्रेणीके काममें
लगाया हुआ समय भी भावके सर्वथा निष्काम होनेपर पहली श्रेणीमें ही गिना जा सकता है ।
इसके लिये हमें समयका विभाग कर लेना चाहिये,
जैसे कि भगवान्ने कहा है‒
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥
(गीता ६ । १७)
‘दुःखोंका नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार
करनेवालेका, कर्मोंमें यथायोग्य चेष्टा करनेवालेका और यथायोग्य
सोने तथा जागनेवालेका ही सिद्ध होता है ।’
इस श्लोकमें अवश्य करनेकी चार बातें बतलायी गयी हैं‒१. युक्ताहारविहार,
२. शरीर-निर्वाहार्थ उचित चेष्टा,
३. यथायोग्य सोना और ४. यथायोग्य जागना । पहले विभागमें शरीरको
सशक्त और स्वस्थ रखनेके लिये शौच, खान, घूमना, व्यायाम, खान-पान, औषध-सेवन आदि चेष्टाएँ सम्मिलित हैं । दूसरा विभाग है‒जीविका
पैदा करनेके लिये; जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदिके लिये अपने-अपने वर्ण-धर्मके अनुसार न्याययुक्त
कर्तव्यकर्मोंका पालन करना बतलाया गया है । तीसरा विभाग है‒शयन करनेके लिये,
इसमें कोई विशेष उल्लेखनीय बात नहीं है । अब चौथा प्रमुख विभाग
है‒जागनेका । इस श्लोकमें ‘अवबोध’
का अर्थ तो रात्रिमें छः घंटे सोकर अन्य समयमें जगते रहना और
उनमें प्रातः-सायं दिनभरमें छः घंटे साधन करना है । परंतु ‘अवबोध’ से यहाँ वस्तुतः मोहनिद्रासे जगकर परमात्माकी प्राप्ति करनेकी
बातको ही प्रधान समझना चाहिये । श्रीशंकराचार्यजीने भी कहा है‒‘जागर्ति को वा सदसद्विवेकी ।’
अब इसपर विचार कीजिये । हमारे पास समय है चौबीस घंटे और काम
है चार । तब समान विभाग करनेसे एक-एक कार्यके लिये छः-छः घंटे मिलते हैं । उपर्युक्त
चार कामोंमें आहार-विहार और शयन‒ये दो तो खर्चके काम हैं और व्यापार तथा अवबोध (साधन
करना)‒ये दो उपार्जनके काम हैं । इस प्रकार खर्च और उपार्जन दोनोंके लिये क्रमशः बारह-बारह
घंटे मिलते हैं । इनमें लगानेके लिये हमारे पास पूँजी हैं दो‒एक समय और दूसरा द्रव्य;
इनमेंसे द्रव्य तो लौकिक पूँजी है और समय अलौकिक पूँजी है ।
आहार-विहारमें तो द्रव्यका व्यय होता है और शयनमें समयका । इसी प्रकार जीविका और अवबोध
(साधन करने) में केवल समयका व्यय होता है;
किंतु अलौकिक पूँजीरूप समयका तो चारोंमें ही व्यय होता है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे
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