।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन शुक्ल सप्तमी, वि.सं.२०७१, बुधवार
वर्णनातीतका वर्णन



(गत ब्लॉगसे आगेका)

वास्तवमें वह तत्त्व स्वतः सबको नित्य-निरन्तर प्राप्त है । अप्राप्तिकी तो मान्यतामात्र है । असत्‌को सत् माननेसे, अप्राप्तको प्राप्त माननेसे ही वह तत्त्व अप्राप्तकी तरह दीखने लग गया । असत्‌को जितनी सत्ता देंगे अर्थात् महत्त्व देंगे, उतनी ही उसकी सत्ता दीखेगी और वह तत्त्व अप्रास दीखेगा । अप्राप्त दीखनेपर भी वह नित्यप्राप्त है अर्थात् न दीखनेपर भी तत्त्वमें कभी किंचिन्मात्र भी फर्क नहीं पड़ता । यह सिद्धान्त है कि प्राप्ति उसीकी होती है, जो सदासे प्राप्त है और निवृत्ति उसीकी होती है, जिसकी सदासे निवृत्ति है । तात्पर्य है कि मिलेगा वही, जो मिला हुआ है और बिछुड़ेगा वही, जो बिछुड़ा हुआ है । नया कुछ भी मिलनेवाला और बिछुड़नेवाला नहीं है । नया मिलेगा तो वह ठहरेगा नहीं, बिछुड़ ही जायगा ।

जितने भी भेद हैं, सब-के-सब प्रकृति (असत्) में ही हैं । तत्त्वमें किंचिन्मात्र भी कोई भेद नहीं है । जब प्राकृत पदार्थोंकी सत्ता मानते हुए, उनको महत्त्व देते हुए उस तत्त्वका वर्णन करते हैं, तब वह तत्त्व केवल बुद्धिका विषय हो जाता है और उसमें भेद दीखने लग जाता है[1] । सभी भेद सापेक्ष होते हैं । अपेक्षा छोड़ें तो कोई भेद नहीं रहता, एक निरपेक्ष तत्त्व रह जाता है । जैसे, दिनकी अपेक्षा रात है और रातकी अपेक्षा दिन है, पर सूर्यमें न दिन है, न रात है अर्थात् वहाँ नित्य प्रकाश है । समुद्रकी अपेक्षा तरंग है और तरंगकी अपेक्षा समुद्र है, पर जल-तत्त्वमें न समुद्र है, न तरंग है ।[2] ऐसे ही गुणोंकी अपेक्षासे उस तत्त्वको सगुण-निर्गुण और आकारकी अपेक्षासे उस तत्त्वको साकार-निराकार कहते हैं । वास्तवमें तत्त्व न सगुण है, न निर्गुण है; न साकार है, न निराकार है ।


[1] शास्त्रोंमें तत्त्वका जो वर्णन आता है, वह हमारी दृष्टिसे है । हमने असत्‌की सत्ता मान रखी है, इसलिये शास्त्र हमारी दृष्टिके अनुसार, हमारी भाषामें असत्‌की निवृत्ति और सत्-तत्त्वका वर्णन करते हैं । यही कारण है कि दृष्टिभेदसे दर्शन अनेक हैं । अनेक दर्शन होते हुए भी तत्त्व एक है । जबतक द्रष्टा, ज्ञाता, दार्शनिक और दर्शन हैं, तबतक तत्त्वके वर्णनमें भेद है । जबतक भेद है, तबतक तत्त्व नहीं है; क्योंकि तत्त्वमें भेद नहीं है । दूसरे शब्दोंमें जबतक अहम् (जड-चेतनकी ग्रन्थि) है, तबतक भेद है । अहम्‌के मिटनेपर कोई भेद नहीं रहता, केवल एक तत्त्व (‘है’) रह जाता है ।

[2] ईश्वर और जीवके विषयमें दो तरहका वर्णन है‒पहला, ईश्वर समुद्र है और मैं उसकी तरंग हूँ अर्थात् तरंग समुद्रकी है; और दूसरा, मेरा स्वरूप समुद्र है और ईश्वर उसकी तरंग है अर्थात् समुद्र तरंगका है । इन दोनोंमें तरंग समुद्रकी है‒यह कहना तो ठीक दीखता है, पर समुद्र तरंगका है‒यह कहना ठीक नहीं दीखता; क्योंकि समुद्र अपेक्षाकृत नित्य है और तरंग अनित्य (क्षणभंगुर) है । अतः तरंग समुद्रकी होती है, समुद्र तरंगका नहीं होता । अगर अपनेको समुद्र और ईश्वरको तरंग मानें तो इस मान्यतासे अनर्थ होगा; क्योंकि ऐसा माननेसे अभिमान पैदा हो जायगा तथा अहम् (चिज्जडग्रन्थि अर्थात् बन्धन) तो नित्य रहेगा और ईश्वर अनित्य हो जायगा ! कारण कि जीवमें अनादिकालसे अहम् (व्यक्तित्व ) का अभ्यास पड़ा हुआ है । अतः जहाँ स्वरूपको अहम् कहेंगे, वहाँ वही अहम् आयेगा, जो अनादिकालसे है । उस अहम्‌के मिटनेसे ही तत्त्वकी प्राप्ति होती है ।

उपर्युक्त दोनों बातोंके सिवाय तीसरी एक विलक्षण बात है कि जल-तत्त्वमें न समुद्र है, न तरंग है अर्थात् वहाँ समुद्र और तरंगका भेद नहीं है । समुद्र और तरंग तो सापेक्ष हैं, पर जल-तत्त्व निरपेक्ष है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सहज साधना’ पुस्तकसे