।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
चैत्र शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
व्रत-पूर्णिमा
करण-निरपेक्ष तत्त्व




 जिससे क्रियाकी सिद्धि होती है, जो क्रियाको उत्पन्न करनेवाला है, उसको कारक’ कहते हैं । कारक छः प्रकारके होते हैं‒कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण । इन छहों कारकोंकी आवश्यकता सांसारिक क्रियाओंकी सिद्धिमें ही है । परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें कारकोंकी आवश्यकता नहीं है अर्थात् वहाँ कारक नहीं चलते । कारण कि परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति क्रियासे नहीं होती । तात्पर्य है कि सब कारक प्रकृतिमें हैं और प्रकृतिके कार्य हैं । प्रकृतिसे अतीत तत्त्वमें कोई कारक नहीं है । कारकोंमें प्रकृतिजन्य पदार्थ और क्रियाका आश्रय लेना पड़ता है, जिससे अभ्यासकी सिद्धि होती है । अभ्याससे एक नयी अवस्थाका निर्माण होता है, तत्त्वका अनुभव नहीं होता; क्योंकि तत्त्वमें अवस्था नहीं है । तत्त्वका अनुभव तो विवेकके द्वारा होता है । यह विवेक प्राणिमात्रको स्वतः प्राप्त है । परन्तु मनुष्यके सिवाय अन्य प्राणियोंमें जो विवेक है, उससे उनका शरीर-निर्वाह तो हो जाता है, पर तत्त्वज्ञान नहीं होता । कारण कि विवेकका उपयोग वे केवल शरीर-निर्वाहमें ही करते हैं । उससे आगे (शरीरसे अतीत तत्त्वमें) उनकी जिज्ञासा नहीं होती[*] । मनुष्य अपने विवेकका सदुपयोग करके, विवेकका आदर करके देवताओंसे भी ऊँचा उठ सकता है भगवान्‌को भी अपने वशमें कर सकता है । परन्तु भोगेच्छाके कारण अपने विवेकका दुरुपयोग करके, विवेकका अनादर करके पशुओंसे भी नीचा गिर सकता है और चौरासी लाख योनियों तथा नरकोंमें जा सकता है[†] ! इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह अपने विवेकका आदर करे, विवेक-विरोधी कोई कार्य न करे ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सहजसाधना’ पुस्तकसे



[*] अन्य प्राणियोंमें यह विवेक स्थावरकी अपेक्षा जंगममें अधिक रहता है । जंगममें भी जलचरकी अपेक्षा थलचर प्राणियोंमें और थलचरकी अपेक्षा नभचर प्राणियोंमें अधिक विवेक रहता है । परन्तु उनमें यह विवेक शरीर-निर्वाहतक ही सीमित रहता है, जिससे वे खाद्य-अखाद्य, सरदी-गरमी, परिश्रम-आराम, संयोग-वियोग आदिकी भिन्नताको जान लेते हैं । परन्तु सत्-असत्, कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक उनमें जाग्रत् नहीं होता । कारण कि उनमें विवेकके योग्य बुद्धि नहीं है और अधिकार भी नहीं है । यह विवेक मनुष्यमें ही जाग्रत् होता है । कारण कि मनुष्यके सिवाय अन्य योनियों भोगप्रधान हैं । मनुष्य अपने विवेकको महत्त्व देकर शरीरसे अतीत तत्त्वकी प्राप्ति कर सकता है, जन्म-मरणके बन्धनसे छूट सकता है । अतः मनुष्यपर अपना उद्धार करनेकी विशेष जिम्मेवारी है; क्योंकि जिसके पास इन्कम (आय) है, उसीपर इन्कम टैक्स लगता है ।

[†] मनुष्य होकर भी अपने विवेकका आदर न करनेसे जैसा पतन होता है, वैसा पतन पशुका भी नहीं होता ! झूठ कपट, बेईमानी, धोखेबाजी, अन्याय, हिंसा आदि पाप मनुष्य ही करता है, पशु नहीं करते । पशु नये पाप नहीं करते, प्रत्युत पूर्वजन्ममें किये गये पापोंका ही फल भोगकर उन्नतिकी ओर जाते हैं, पर मनुष्य सुख-लोलुपताके कारण नये-नये पाप करके पतनकी ओर जाता है । अपने विवेकको वह नये-नये पापोंकी खोज करनेमें ही लगा देता है । भोगासक्तिके कारण उसका विवेक इन्द्रियोंके भोगोंतक ही सीमित रहता है उससे ऊँचा नहीं उठता‒‘कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः’ (गीता १६ । ११) । इस प्रकार पशु तो अपने कर्मोंका फल भोगकर मनुष्ययोनिकी तरफ आते हैं, पर मनुष्य नये-नये पाप करके पशुयोनिसे भी नीचे (नरकोंमें) चले जाते हैं और जा रहे हैं ! इसलिये ऐसे मनुष्यके संगको नरकवाससे भी बुरा कहा गया है‒
बरु भल बास नरक कर ताता ।
दुष्ट  संग  जनि  देइ  बिधाता ॥
                                             (मानस ५ । ४६ । ४)
कारण कि नरकोंमें तो पाप नष्ट होकर शुद्धि आती है, पर दुष्टोंके संगसे अशुद्धि आती है, पाप बनते हैं ।