।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
वैशाख अमावस्या, वि.सं.२०७२, शनिवार
भगवत्तत्त्व



 (गत ब्लॉगसे आगेका)

भगवत्तत्त्व सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु और व्यक्तिमें परिपूर्ण है । अतः उसकी प्राप्ति किसी क्रिया, बल, योग्यता, अधिकार, परिस्थिति, सामर्थ्य, वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिके आश्रित नहीं है; क्योंकि चेतन-(सत्य-) की प्राप्ति जडता-(असत्य-) के द्वारा नहीं, अपितु जडताके त्यागसे होती है ।

मनुष्य यदि अपने ही अनुभवका आदर करे तो उसे सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति हो सकती है । यह प्रत्येक मनुष्यका अनुभव है कि जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधिकी अवस्थाएँ तो परिवर्तनशील तथा अनेक होती हैं, पर इन अवस्थाओंको जाननेवाला अपरिवर्तनशील तथा एक रहता है । यदि अवस्थाओंको जाननेवाला अवस्थाओंसे अतीत न होता, तो अवस्थाओंकी भिन्नता, उनकी गणना, उनके परिवर्तन (आने-जाने), उनकी सन्धि और उनके अभावका ज्ञाता (जाननेवाला) कौन होता ? ये अवस्थाएँ अहम्’ (जडसे माने हुए सम्बन्ध-) पर टिकी हुई हैं और अहम्सत्यतत्त्वपर टिका हुआ है । तात्पर्य यह है कि एक सत्यतत्त्वके सिवा अन्य किसी भी अवस्था आदिकी और माने हुए अहम्की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । इस प्रकार अवस्थाओंसे तथा अहम्से अपने-आप-(स्वरूप-) को अलग अनुभव करनेपर तत्त्वज्ञान हो जाता है । तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जानेपर अहम्और अहम्की अवस्थाओंकी स्वतन्त्र सत्ता सत्यत्वेन किंचित भी नहीं रहती । जिस प्रकार समुद्र और लहरोंमें सत्ता जलकी ही है, समुद्र और लहरोंकी किसी भी कालमें कोई स्वतन्त्र  सत्ता है ही नहीं । उसी प्रकार अहम्और अवस्थाओंमें एक भगवत्तत्त्वकी सत्ता है अर्थात् सर्वत्र एक भगवत्तत्त्व ही शेष रह जाता है । इसीको गीताने वासुदेवः सर्वम्’ कहा है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे