।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
वैशाख शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
दैवी सम्पदा एवं आसुरी सम्पदा



(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्‌को याद करनेसे, नाम लेनेसे सब गुण बिना बुलाये, बिना जाने स्वाभाविक ही आ जाते हैं । अतः दैवी सम्पत्तिमें सबसे पहली बात है भगवान्‌को याद करना, उनके शरण होना, मस्तीसे उनके दरबारमें रहना, कृपा मानकर उनके आश्रित रहना, खूब उत्साहपूर्वक रहना । जो अवसर प्राप्त हो जाय, उसमें भगवान्‌की अपार कृपा समझना । काम, क्रोध और लोभ‒ये तीन इसमें बाधक हैं, इनका त्याग करे ।यह मिले’, ‘वह मिले’ इस इच्छाका नामकाम’ है, यह और अधिक मिले इसका नामलोभ’ है तथा इन इच्छाओंकी प्राप्तिमें बाधा आनेपरक्रोध’ होता है । इन तीनोंका त्याग करे । आसुरी सम्पत्तिका त्याग करे‒दैवी सम्पत्ति लानेके लिये ।

सार बात है‒भगवान्‌को याद रखें । गीताके सातवें अध्यायके पंद्रहवें श्लोकमें तथा नवें अध्यायके ग्यारहवें और बारहवें श्लोकोंमें भगवान्‌ने कहा कि आसुरी और राक्षसी प्रकृतिको धारण करनेवाले मूढ़ मेरा भजन नहीं करते; किंतु मेरा तिरस्कार करते हैं’ तथा नवें अध्यायके तेरहवें और चौदहवें श्लोकोंमें कहा कि दैवी प्रकृतिसे युक्त महात्माजन मुझे सब भूतोंका आदि और अविनाशी समझकर अनन्य प्रेमके साथ सब प्रकारसे निरन्तर मेरा भजन करते हैं ।’ इस प्रकार दैवी सम्पत्ति और आसुरी सम्पत्ति‒इन दोनोंका विभाग करनेके लिये ही गीताके सोलहवें अध्यायका प्रकरण चला है । भगवान्‌का आश्रय लेनेसे सब गुण अपने-आप ही आ जाते हैं ।

जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा ॥

भगवान्‌के भजनसे बड़े-से-बड़े गुण अपने-आप आ जाते हैं । हर एक कामको भगवदाश्रित होकर आनन्दसे करे । भगवान्‌का विधान मानकर मस्त रहे । यही भजन है । प्रभुका आश्रय लेकर मस्त रहे । फिर सब दैवी गुण अपने-आप ही आ जायँगे ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे