।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल सप्तमी, वि.सं.२०७२, सोमवार
अभेद और अभिन्नता



(गत ब्लॉगसे आगेका)

भक्तिकी अभिन्नतामें अपनी तरफ देखते हैं तो भेद होता है कि मैं भगवान्‌का हूँ, भगवान् मेरे हैं । भगवान्‌की तरफ देखते हैं तो अभेद होता है कि एक भगवान्‌के सिवाय कुछ नहीं है । यह अभेद भक्तिमें ही है, ज्ञानयोगमें नहीं । भक्तिकी अभिन्नतामें भक्त भगवान्‌से भिन्न कभी होता ही नहीं । वह न संयोग (मिलन)-में भिन्न होता है, न वियोग (विरह)-में भिन्न होता है । ज्ञानमें अपने स्वरूपका ज्ञान होता है, जो परमात्माका अंश है‒ममैवांशो जीवलोके’

ज्ञानयोगमें साधकको एक तत्त्वसे अभेदका अनुभव हो जाता है । परन्तु जिसके भीतर भक्तिके संस्कार होते हैं, उसको ज्ञानके अभेदमें सन्तोष नहीं होता । अतः उसको भक्तिकी प्राप्ति होती है । भक्तिमें फिर भेद और अभेद होते रहते हैं, जिसको अभिन्नता कहते हैं । परन्तु ज्ञानयोगमें केवल अभेद होता है । ज्ञानयोगमें परमात्माका अंश अपने स्वरूपमें स्थित हो गया, अब उसमें भेद कैसे हो ? उसमें अखण्ड आनन्द, अपार आनन्द, असीम आनन्द, एक आनन्द-ही-आनन्द रहता है । परन्तु भक्तियोगमें अभिन्नता होती है । दोसे एक होते हैं तो अभेद होता है और एकसे दो होते हैं तो अभिन्नता होती है । अभेदमें जीवकी ब्रह्मके साथ एकता हो जाती है । एकरूपसे जो ब्रह्म है, वही अनेकरूपसे जीव है । अभिन्नतामें ईश्वरके साथ एकता होती है । अंश-अंशकी एकता अभेद है और अंश-अंशीकी एकता अभिन्नता है । अंश-अंशीकी एकतामें प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम होता है । प्रतिक्षण वर्धमान प्रेममें विरह होनेपर भक्त मिलनकी इच्छा करता है और मिलन होनेपर चुप, शान्त हो जाता है ! इस अवस्थाका वर्णन भागवतमें इस प्रकार किया गया है‒

वाग्गद्रदा द्रवते यस्य चित्तं-
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च ।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च
मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ॥
                                 (श्रीमद्भा ११ । १४ । २४)

‘जिसकी वाणी मेरे नाम, गुण और लीलाका वर्णन करती-करती गद्‌गद हो जाती है, जिसका चित्त मेरे रूप, गुण, प्रभाव और लीलाओंको याद करते-करते द्रवित हो जाता है, जो बारंबार रोता रहता है, कभी हँसने लग जाता है, कभी लज्जा छोड़कर ऊँचे स्वरसे गाने लगता है, तो कभी नाचने लग जाता है, ऐसा मेरा भक्त सारे संसारको पवित्र कर देता है ।’
  
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
       ‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे