।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
शुद्ध आषाढ़ कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.२०७२, शनिवार
भगवत्-तत्त्व



पराकृतनमद्बन्धं     परब्रह्म    नराकृति ।
सौन्दर्यसारसर्वस्वं वन्दे नन्दात्मजं महः ॥

परमात्माका वास्तविक तत्त्व समझनेके लिये न तो कोई दृष्टान्त ठीक तरहसे लागू होता  है और न कोई युक्ति ही । परमात्माका निर्गुण, सगुण, निराकार, साकार आदि रूपोंसे जो वर्णन किया जाता है, उससे उनका वास्तविक स्वरूप तो अलग ही रह जाता है, पूरा वर्णन हो ही नहीं पाता । क्योंकि वाणी, मन, बुद्धि और युक्तियाँ‒सभी कुछ मायिक हैं, प्रकृतिके कार्य हैं और जड़ हैं; अतः वे उस चिन्मय परमात्माको समझनेमें असमर्थ हैं । जितने दृष्टान्त और युक्तियाँ बतलायी जाती हैं, वे सब परमात्माके यथार्थ स्वरूपको समझकर मन-बुद्धि उनकी ओर लग जायँ‒इसीलिये कही जाती हैं । परमात्माके स्वरूपके वर्णनमें तो देवताओं और ऋषियोंके भी मन-बुद्धि कुण्ठित हो जाते हैं, फिर वहाँ साधारण मनुष्योंके मन-बुद्धि कैसे पहुँच सकते हैं । गीतामें कहा है‒

न मे विदुः सुरगणाः   प्रभवं  न महर्षयः ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥
                                               (१० । २)

‘मेरी उत्पत्तिको अर्थात् लीलासे प्रकट होनेको न देवतालोग जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकारसे देवताओंका और महर्षियोंका भी आदिकारण हूँ ।’

जब देवता और महर्षिगण भी उस तत्त्वतक नहीं पहुँच पाते, तब फिर इस मानवी बुद्धिसे उसे समझना-समझाना तो एक बालचपलतामात्र ही है ।

यह भगवत्तत्त्वका विषय बहुत ही गूढ़ और रहस्यमय है । इसे अवश्य जानना चाहिये । मनुष्य-जन्म इसीलिये मिला है । इस तत्त्वको जाननेसे ही यह जन्म सार्थक होता है तथा इसे जान लेनेपर मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है; फिर उसे अपने लिये कुछ भी जानना अथवा करना बाकी नहीं रह जाता । ‘यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥’ (गीता ७ । २) यह विषय इतना दुर्विज्ञेय होनेपर भी भगवान् और महापुरुषोंकी कृपासे सहज ही जाना जा सकता है । उस कृपाकी प्राप्तिके लिये कुतर्क छोड़कर उनसे सरलतापूर्वक इस तत्त्वको समझनेकी चेष्टा करनी चाहिये तथा उनकी आज्ञाके अनुसार अपने कर्तव्यपालनमें तत्पर हो जाना चाहिये । ऐसा करनेसे ही मनुष्य इस दुर्विज्ञेय तत्त्वको समझकर अपने देवदुर्लभ मानव-जन्मको अनायास ही सफल बना सकता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे