।। श्रीहरिः ।।


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अधिक आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.२०७२, बुधवार
नामजपकी विलक्षणता


  (गत ब्लॉगसे आगेका)
सांसारिक अथवा पारमार्थिक कोई भी क्रिया की जाय, वह जड़के द्वारा ही होती है । परन्तु लक्ष्य चेतन (परमात्मा) रहनेसे वह जड़ क्रिया भी चेतनकी ओर ले जानेवाली हो जाती है

कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ॥
                                         (गीता १७ । २७)

जहाँ हमारा लक्ष्य होगा, वहीं हम जायँगे । लक्ष्य परमात्मा है तो युद्धरूपी क्रिया भी परमात्मप्रासिका कारण हो जायगी । इतना ही नहीं, लक्ष्य चेतन होनेसे जड़ भी चिन्मय हो जायगा । जैसे, ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’इस प्रकार भगवान्का होकर भगवान्का भजन करनेसे मीराबाईका जड़ शरीर भी चिन्मय होकर भगवान्के श्रीविग्रहमें लीन हो गया ! अतः क्रिया भले ही जड़ हो, पर उद्देश्य जड़ (भोग और संग्रह) नहीं होना चाहिये ।

शास्त्रोंमें यहाँतक लिखा है कि पापी-से-पापी मनुष्य भी उतने पाप नहीं कर सकता, जितने पापाका नाश करनेकी शक्ति भगवन्नाममें है ! वह शक्ति ‘हे मेरे नाथ ! हे मेरे प्रभु !’ इस पुकारमें है । इसमें शब्द तो बाहरकी वाणीसे, क्रियासे निकलते हैं, पर आह भीतरसे, स्वयंसे निकलती है । भीतरसे जो आवाज निकलती है, उसमें एक ताकत होती है । वह ताकत उसकी होती है, जिसको वह पुकारता है । जैसे, बच्चा रोता है और माँको पुकारता है तो उसका माँके साथ भीतरसे घनिष्ठ सम्बन्ध होता है, इसलिये माँ ठहर नहीं सकती, दूसरा काम कर नहीं सकती । इसी तरह सच्चे हृदयसे भगवन्नामका उच्चारण करनेसे भगवान् ठहर नहीं सकते, उनके सब काम छूट जाते हैं ! तात्पर्य है कि भगवन्नामके जपमें एक अलौकिक विलक्षण ताकत है, जिससे जीवका बहुत जल्दी कल्याण हो जाता है । जब दुःशासन द्रौपदीका चीर खींचने लगा, तब द्रौपदीने ‘गोविन्द द्वारकावासिन् कृष्ण गोपीजनप्रिय’ कहकर भगवान्को पुकारा । पुकार सुनते ही भगवान् आ गये । पर उनके आनेमें थोड़ी-सी देरी लगी; क्योंकि द्रौपदीने भगवान्‌को ‘द्वारकावासिन्’ कहा तो भगवान्को द्वारका जाकर आना पड़ा । अगर वह ‘द्वारकावासिन्’ नहीं कहती तो थोड़ी-सी देरी भी नहीं लगती, भगवान् तत्काल वहीं प्रकट हो जाते !

एक भगवान् कृष्णका भक्त था और एक भगवान् रामका भक्त था । दोनोंने अपने-अपने इष्टदेवको पुकारा तो भगवान् कृष्ण बहुत जल्दी आ गये, पर भगवान् रामको आनेमें देरी लगी । कारण यह था कि भगवान्‌ राम राजाधिराज हैं । राजाओंकी सवारी आनेमें तो देरी लगती है, पर ग्वालेके आनेमें क्या देरी लगती है ? उसको आनेके लिये कोई तैयारी नहीं करनी पड़ती । यह भक्तका भाव है । अयोध्यामें एक सज्जन मिले थे । वे अपने पास एक बालरूप रामका चित्र रखा करते थे । उन्होंने कहा कि मैं तो बालरूप रामजीकी उपासना किया करता हूँ । महाराजाधिराज राजा रामकी उपासना करते हुए मेरेको डर लगता है कि वे राजा ठहरे, कोई कसूर हो जाय तो चट केदमें डाल देंगे ! परन्तु बालरूप रामको मैं धमका भी सकता हूँ, थप्पड़ भी लगा सकता हूँ ! यह भक्तोंकी भावनाएँ हैं ।

अगर मनुष्य नामजपको क्रियारूपसे न लेकर पुकाररूपसे ले तो बहुत जल्दी काम हो जायगा और भगवत्प्रेमकी, भगवत्सम्बन्धकी स्मृति जाग्रत् हो जायगी । संसारकी आसक्तिके कारण भगवत्प्रेम ढक जाता है । भगवान्को पुकारनेसे वह प्रेम प्रकट हो जाता है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे