।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
अधिक आषाढ़ कृष्ण दशमी, वि.सं.२०७२, शनिवार
एकादशी-व्रत कल है (सबका)
भगवत्-तत्त्व


 (गत ब्लॉगसे आगेका)
अभेद-भेदमार्गका वर्णन

साधनका आरम्भ सगुण-निराकारसे ही होता है । साधनके मुख्य भेद दो ही हैं‒निर्गुण और सगुणकी उपासना अथवा यों कहें कि अभेद और भेदमार्ग ।

निर्गुण-निराकारका उद्देश्य रखकर अभेदभावसे उपासना करनेमें मुख्य साधन है‒एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही सर्वत्र सदा परिपूर्ण है, उसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है; सम्पूर्ण पदार्थ, क्रिया, भाव, व्यक्ति‒सभी मृगतृष्णाकी अथवा स्वप्नकी सृष्टिकी तरह केवल मायामय ही है‒इस प्रकारकी वृत्तिको हर समय अटल बनाये रखना । यह भाव यदि बुद्धिमें अच्छी तरह न बैठे तो वह सच्चिदानन्दघन परमात्मा सर्वत्र सदा परिपूर्ण है‒इस प्रकार परमात्माकी सत्ताको ही प्रधान लक्ष्य बनाकर साधन किया जा सकता है ।

सगुण-उपासनामें भेदभाव ही मुख्य है और भेदभावमें ऊँची-से-ऊँची स्थिति परमात्माके साकार स्वरूपके साक्षात् दर्शन होना है । इसके लिये निरन्तर साकार इष्टदेवके नामका जप और उनके स्वरूपका चिन्तन करना ही मुख्य साधन है । यदि साकार रूप ध्यानमें न आये, तो भी परम प्रेममय, परम दयालु भगवान् सदा सर्वत्र विराजमान हैं, वे मेरे साथ चलते हैं, मेरे साथ प्रत्येक कार्य करते हैं और मुझे अपने आज्ञानुसार चलते देखकर प्रसन्न होते रहते हैं तथा बड़ी ही कृपादृष्टिसे मुझे देख रहे हैं, मैं इस प्रकार उनकी कृपादृष्टिमें रहकर सदा प्रसन्न रहता हुआ उन्हींके आज्ञानुसार चलता हूँ । इस तरह भगवान्‌की सत्ताको लक्ष्य बनाकर भी साधन किया जा सकता है ।

निर्गुण-सगुण‒दोनों ही उपासनाएँ परमात्माकी सत्ताकी प्रधानता रखकर ही होती हैं, अतः ये सगुण-निराकारसे ही आरम्भ होती हैं । निर्गुण उपासनामें तो ज्यों-ज्यों दूसरी विजातीय‒प्रकृतिकी सत्ता हटती जाती है और जीव-ब्रह्मका भेद मिटता जाता है तथा वृत्तियाँ सूक्ष्म होती चली जाती हैं, त्यों-ही-त्यों वह उपासना ऊँची‒श्रेष्ठ मानी जाती है । सगुण-साकारकी उपासनामें ज्यों-ज्यों भगवान्‌का विग्रहरूप ध्यानमें आने लगता है अर्थात् वृत्तियाँ विशेषरूपसे भगवदाकार बनती जाती हैं, जितना ही भगवान्‌का स्वरूप वृत्ति और इन्द्रियोंका विषय होता चला जाता है, उतनी ही वह उपासना ऊँची‒श्रेष्ठ मानी जाती है ।

निर्गुण-निराकारको लक्ष्य करके उपासना करनेवाले पुरुषकी उपासनाकी पूर्णता होनेपर उसकी दृष्टिमें एक सच्चिदानन्दघन बोध-स्वरूप परमात्मा ही रह जाते हैं । परमात्माके सिवा अन्य किसी भी वस्तुका संकल्प भी नहीं रहता । उसके ज्ञानमें अपनी तथा संसारकी सत्ता परमात्मासे भिन्न नहीं रहती । ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय‒सभी कुछ एक परमात्म-स्वरूप ही बन जाते हैं, तब वह कृतकृत्य हो जाता है । 

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे