।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
शुद्ध आषाढ़ शुक्ल एकादशी, वि.सं.२०७२, सोमवार
श्रीहरिशयनी एकादशी-व्रत (सबका)
उपासना शब्दका अर्थ और 
उसका स्वरूप


(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक समय श्रद्धेय सेठ श्रीजयदयालजी गोयन्दकाके सामने किसी भाईने प्रश्न किया कि ‘जब सब परमात्मा ही हैं, तब हम जो पाप करते हैं, वे भी परमात्माके द्वारा ही होते हैं । ‘ये चैव सात्त्विका भावाः’ (गीता ७ । १२) यह भी परमात्माकी ही उपासना हुई और रावण, कुम्भकर्ण आदिके इतना अन्याय करनेपर भी उन्हें उसी परमात्माकी प्राप्ति हुई, तब हम कर्तव्य करके क्यों बन्धनमें पडें !’ उत्तरमें श्रद्धेय श्रीसेठजीने कहा‒‘हम जैसी उपासना करेंगे, वैसे ही उपास्य मिलेंगे’ वैसी उपासना करनेपर दुःखमय भगवान् मिलेंगे ! क्या दुःख भगवान् नहीं हैं ! जैसा स्वरूप चाहते हैं, वैसी उपासना कीजिये । यदि रावण आदिकी तरह करते हैं तो वैसी शक्ति चाहिये कि भगवान्‌के सिवा दूसरोंसे मरे नहीं, तब तो कल्याण हो जायगा । पर यदि कोई बीचमें ही मार देगा तो क्या दशा होगी ? उद्धार होनेसे वंचित रह जायगें । ‘जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ।’ (गीता ६ । ४४) ‘योगका जिज्ञासु भी शब्दब्रह्मको पार कर जाता है’ इस सच्चे मार्गमें धोखा नहीं है । सब कुछ परमात्मा ही है । इसका तात्पर्य यह है कि कोई साकार चाहता है, कोई निराकार । साकारमें भी कोई विष्णु, राम, कृष्ण, शक्ति, शिव आदिको चाहता है । जिस रूपमें जिसकी पूज्य-भावना, आदर और रुचि होगी, उसकी उपासनासे उसको उसी स्वरूपकी प्राप्ति होगी । फिर भगवान्‌की कृपासे उसको वास्तविक स्वरूपकी प्राप्ति होगी जो मन-वाणीसे अतीत है ।

कर्मयोगमें भी सत्‌की ही उपासना । है । इसमें फल-आसक्तिका त्याग होना चाहिये । लोग कहते हैं कि ‘ममता-आसक्ति मिटती नहीं ।’ इस विषयमें यह विचारना चाहिये कि आसक्ति सदा एक-सी ही रहती है क्या ? पहले जो माँका स्नेह होता है, पीछे वह वैसा ही रहता है क्या ? युवावस्थामें स्त्रीमें जो आकर्षण रहता है वृद्धावस्थामें वैसा है क्या ? किसी भी वस्तुके साथ देख लें, मकान बनवाया  या गहना-कपड़ा बनवाया, दो चार दिन जो आनन्द आया, फिर वह आनन्द वैसा ही रहता है क्या ? अब तनिक विचार करें, संसारका कोई भी पदार्थ रहनेवाला नहीं है ।  फिर यह स्नेह, ममता, आसक्ति इन पदार्थोंमें न करके भगवान्‌से कर लेते तो कृतकृत्य हो जाते ।

संसारके सारे पदार्थ नाशवान् हैं । इनसे कुछ मिलनेवाला नहीं है । केवल अन्तःकरण मलिन होगा, अशान्ति मिलेगी । माँ-बेटेका बड़ा स्नेह है, लड़का इस समय माताके अनुकूल आचरण करता है, पर बड़ा हो जानेपर जब वह पत्नीके कहनेके अनुसार माताके प्रतिकूल चलने लगता है, तब माताकी ममता वैसी नहीं रह सकती, वह स्वतः टूट जाती है । ममता उस कच्चे धागेके समान है जो थोड़ा-सा विरुद्ध पड़नेपर टूट जाता है । इसलिये ममताका त्याग कठिन नहीं है; ममताको ग्रहण कर रखना कठिन है । यह सदा एक रस नहीं रहती, बदलती रहती है । इससे सिद्ध है कि प्रीति असली जगह नहीं हुई । पाँच वर्षका बालक अपनी माँको खोजता है । दूसरी माताएँ बैठी हैं, पूछनेपर वे अपनेको माँ कहती हैं, किंतु बालक उनमेंसे किसीको माँ नहीं कहता । उसकी माँ होती तो वह उसकी गोदमें चला जाता ‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७) । इसलिये गीतामें कहा है ‘यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।’ (गीता ६ । २२) ‘जिसको पाकर फिर दूसरी वस्तुको उससे अधिक नहीं मानता ।’ कर्मयोगमें फलकी कामनाका त्याग है । निष्कामभावका तात्पर्य है ‘कर्म चैव तदर्थीयम्’ (गीता १७ । २७), ‘नेहाभिक्रम-नाशोऽस्ति’, ‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य’ (गीता २ । ४०) आदि । ममता नहीं छूटनेसे आगे परमात्माकी ओर चलनेमें कठिनता है । माता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-भाईमें अधिक स्नेह है, ममता है, किन्तु जरा-सी अनुकूलतामें बाधा पड़ी, स्वार्थको झटका लगा कि वह ममता नहीं रहती है । इसीलिये गोस्वामीजी कहते हैं‒

जननी   जनक  बंधू  सुत  दारा ।
तनु धनु भवन  सुख  परिवारा ॥
सब   कै  ममता   ताग  बटोरी ।
मम पद मनहि बाँध बरि डोरी ॥

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘एकै साधे सब सधै’ पुस्तकसे