।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
श्रावण शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७२, रविवार
भगवान्से सम्बन्ध


(गत ब्लॉगसे आगेका)
इस वास्ते भगवान्से किसी तरहसे आप सम्बन्ध जोड लो और भगवान्के साथ कुछ भी कर लो, वह कल्याण करेगा । ‘तस्मात् केनाप्युपायेन मनः कृष्णे निवेशयेत् ।’ भगवान्में मन लगा दो तो भगवान्में मन लगानेसे कल्याण होता है । नारदजी महाराज कहते हैं‘प्रेम उसमें ही करो, उसको ही अपनी वृत्तियोंका विषय बनाओ, जो कुछ है लक्ष्य उसीको बनाओ । उनके साथ चाहे जैसे आप कर लो ।’

कितनी विचित्र बात है कि जो कुछ करो, भगवान्के लिये करो, सब ठीक हो जायगा । ‘कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ॥’ उस परमात्माके लिये कर्म किया जायगा वह सब सत्कर्म हो जायगा । कर्म भी कभी सत् होता है ? कर्मका तो आरम्भ होता है और समाप्ति होती है । फल भी आरम्भ होता है और समाप्त होता है । तो कर्म, वह सत् थोड़ा ही होता है, क्रिया निरन्तर होती नहीं । परिवर्तनशील है क्रिया तो वह सत् कैसे होगी ? पर वह ‘तदर्थीय’ हो जायगा, भगवान्के लिये हो जायगा, तो कर्म भी सत् हो जायगा । सत् क्यों हो जायगा ? आगमें लकड़ी डालो, पत्थर डालो, कोयला डाल दो, कंकड़ डाल दो, कुछ भी डाल दो, वह भी चमकने लगेगा; क्योंकि अग्निके साथमें हो गया न । ऐसे ही भगवान्के साथ जो कुछ आप कर लो, वह सब-का-सब चमक उठेगा । सत् हो जायगा ।


पूतनाने जहर दिया मारनेके लिये । उसने तो मारनेके लिये दिया, पर भगवान्ने उसका उद्धार कर दिया; क्योंकि ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ जो मुझे जैसे भजता है, मैं भी उसको वैसे ही भजता हूँ । पूतना मारनेके लिये गयी तो मार ही दिया उसको; परन्तु मारकर कल्याण किया । यह तो नयी बात है । वह पूतना कोई कन्हैयाको मारकर कल्याण करती क्या ! ‘अहो बकी यं स्तनकालकूटं जिघांसयापाययदप्यसाध्वी । लेभे गतिं धात्र्युचिताम्’जो गति धाय माँको देनी चाहिये, वह गति ‘लेभे ।’ ‘कं वा दयालु शरणं ब्रजेम ।’ शुकदेव मुनिकी व्यासजी महाराज गरज करते रह गये, पुकारते रहे ‘पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदुः’ वृक्ष, पहाड़ बोले, पर वे नहीं बोले । पुत्र ! पुत्र ! कहते हुए व्यासजी पीछे जाते हैं । शुकदेवजी तो बोले ही नहीं, आगे भागते हैं । वे ही शुकदेवजी अब आकर गरज करते हैं व्यासजीकी । व्यासजीने भागवत बनाकर ब्रह्मचारियोंको सिखायी । ब्रह्मचारियोंको समिधाके लिये जंगलमें भेजा । वे समिधा लाने गये । वहाँपर वे ‘अहो बकी यं स्तनकालकूटम्’ यह श्लोक गा रहे थे । शुकदेवजीके कानोंमें पड़ गया तो सोचा, कहाँका श्लोक है ? कौन गा रहे हैं ? कैसी बात है ? वे भगवान्के गुणोंसे आकृष्ट हो गये । यह तो भागवतका है । तो किसने बनाया ? व्यासजीने बनाया तो हम तो भागवत पढेंगे । जो पिताजीकी आवाज नहीं सुनते थे, वे गरज करके पढ़ते हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे