।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
श्रावण शुक्ल एकादशी, वि.सं.२०७२, बुधवार
पुत्रदा एकादशी-व्रत (सबका)
प्रवचन‒५


(गत ब्लॉगसे आगेका)
संसारिक वस्तुएँ केवल सदुपयोग करनेके लिये हैं, आश्रय लेनेके लिये नहीं । आश्रय लेनेसे ही उनका दुरुपयोग होता है । रुपये खर्च करनेके लिये ही है । अपने या दूसरेके लिये खर्च करनेके अतिरिक्त रुपये और किस काम आयँगे ? रुपयोंके संग्रहसे अभिमान, आसक्ति, प्रमाद आदि ही बढ़ते है, पर उनका संग्रह करके मनुष्य फँस जाता है । इसी प्रकार संसारके सब पदार्थ सदुपयोग करनेके लिये ही है । उन्हें अपने लिये मानकर मनुष्य मुफ्तमें बँध जाता है । पदार्थ तो अपने पास सदा रहते नहीं, केवल बन्धन-बन्धन रह जाता है ।

सम्बन्ध सदा दोमें ही होता है । पिता-पुत्र, पति-पत्नी आदिमें दोनों ओरसे (दोतरफा) सम्बन्ध होता है अर्थात् पिता कहता है कि यह मेरा पुत्र है और पुत्र कहता है कि यह मेरा पिता है, इत्यादि । परंतु शरीर, धन-सम्पत्ति आदि जड़ वस्तुओंके साथ सम्बन्ध केवल हमारी ओरसे ही (एकतरफा) होता है अर्थात् हम ही कहते है कि शरीर मेरा है, धन-सम्पत्ति मेरी है; पर शरीर, धन-सम्पत्ति आदि वस्तुएँ कभी हमें यह नहीं कहतीं कि तुम हमारे हो या हम तुम्हारे है । इन वस्तुओंसे हम अपना जो सम्बन्ध मान लेते है, वह सम्बन्ध ही बन्धनका खास कारण है । इससे भी अधिक आश्वर्यकी बात यह है कि वस्तुके न रहनेपर भी उससे सम्बन्ध मानते रहते हैं ! सम्बन्धी तो नहीं रहता, पर सम्बन्ध रह जाता है ! जैसे पतिका देहान्त हुए कई वर्ष बीत जानेपर भी विधवा खी अपनेको उसीकी पत्नी मानती रहती है । वस्तुके रहते हुए भी हम उससे अपना सम्बन्ध तोड़ सकते हैं, फिर वस्तुके न रहनेपर तो उससे सम्बन्ध रहना ही नहीं चाहिये । वस्तुसे अपना जो सम्बन्ध दीखता है, वह केवल उस वस्तुके सदुपयोग- (सेवा-) के लिये ही है, अपना अधिकार जमानेके लिये नहीं ।

यदि मनुष्य संसारसे माने हुए सम्बन्धका त्याग कर दे तो वह निहाल हो जाय ! मनुष्यका वास्तविक सम्बन्ध परमात्माके साथ है, जो नित्यसिद्ध है । अतः साधकको दृढ़तापूर्वक यह मान लेना चाहिये कि ये उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुएँ मेरी नहीं है । मेरे तो केवल भगवान् ही हैं‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ।’

उस नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वको उद्योगसाध्य (परिश्रमसाध्य या पुरुषार्थसाध्य) मान लेना भूल है । उद्योगसाध्य वस्तु बनावटी होती है । परमात्मतत्त्वमें हमारी स्थिति बनावटी नहीं है, अपितु वास्तविक है; उसमें हमारी स्थिति स्वतः है । परमात्माके सिवा सब कुछ ‘पर’ है । ‘पर’- (संसार-) के अधीन होना पराधीनता है । उद्योग इतना ही है कि पराधीनताको त्याग दें अर्थात् संसारसे अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर लें । जो निरन्तर हमें छोड़ता चला जा रहा है, उसीको छोड़ना है‒यही साधन है । जो सदासे विमुख है, उस संसारसे ही विमुख होना है और जो सदासे सम्मुख है, उस परमात्मतत्त्वके ही सम्मुख होना है‒

सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।
जन्म कोटि अध नासहिं तबहीं ॥
                                     (मानस ५ । ४३ । १

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे